मराठीसाठी वेळ काढा

मराठीसाठी वेळ काढा

मराठीत टंकनासाठी इन्स्क्रिप्ट की-बोर्ड शिका -- तो शाळेतल्या पहिलीच्या पहिल्या धड्याइतकाच (म्हणजे अआइई, कखगघचछजझ....या पद्धतीचा ) सोपा आहे. मग तुमच्या घरी कामाला येणारे, शाळेत आठवीच्या पुढे न जाउ शकलेले सर्व, इंग्लिशशिवायच तुमच्याकडून पाच मिनिटांत संगणक-टंकन शिकतील. त्यांचे आशिर्वाद मिळवा.

Sunday, February 3, 2019

गर्भनाल ३ मसूरी प्रशिक्षणका आरंभ और मेरा बिहारी अख्खडपन


मसूरी प्रशिक्षणका आरंभ और मेरा बिहारी अख्खडपन
लेख ३


१३ जुलाई १९७४ को मसूरी अकादमी पहुंचनेवाले प्रशिक्षणार्थियोंमें मैं और राजी बिलकुल शुरुआती थे। रिसेप्शनपर पहले कमरा बताया गया और कहा गया कि सामान रखवाकर, आरामसे १ बजेके बाद आना - कई कागजात भरवाने हैं। यहीं मुलाकात होती है अगमचंदसे - अगले वर्ष तकका हमारा पर्सनल अटेण्डण्ट। उसके जिम्मे लेडीज होस्टेलके छः कमरे थे और हरेकमें चार प्रशिक्षणार्थी। लेकिन पूरे वर्षभरमें कभी किसीको एक बार भी शिकायतका मौका उसने नही दिया इसीसे उसकी कर्तव्यदक्षता समझी जा सकती है। पहले ही दिन उसने टिप दी - आपके गरम कपडे और रजाई मसूरीकी ठंडकके लायक नही हैं। मै तुरंत रजाई बनाने वालेको और कोटके टेलरको बुलाता हूं। दोपहरमें मसूरी मार्केट जाकर दो गरम स्वेटर खरीद लेना । छातेसे काम नही चलेगा, यहॉं रेनकोट चाहिये। इत्यादी।

हमारा एक बडासा कमरा था जिसमे पार्टीशन डालकर दो हिस्से बनाये थे। इस तरफ मैं और राजी तथा दूसरे हिस्सेमें ललिता और रुक्मिणी। शाम होते होते पूरा लेडीज होस्टेल भर गया था। घूमने निकले तो देखा कि लडकोंवाले साइडमें भी सारे होस्टेल भरे थे। इस मेन बिल्डिंगमें करीब ४०० के रहनेकी व्यवस्था थी। बाकी करीब ८०० प्रशिक्षणार्थी बाहरी बिल्डिंगोमें थे।

उन दिनों सभी सर्विसेस मिलाकर लगभग हजार -बारहसौ प्रशिक्षणार्थी हो जाते थे जो सभी एक साथ मसूरी अकादमीमें फाउंडेशन कोर्सके लिये आते थे। ६ महिने पश्चात् वे अपने अपने सर्विसके अनुसार देशभरमें अवस्थित ट्रेनिंग अकादमीमें चले जाते औऱ केवल IAS प्रशिक्षणार्थी अगले कोर्सके लिये रह जाते। जैसे जैसे वर्ष बीतते हैं, प्रशिक्षणार्थियोंकी संख्या घटती बढती रहती है।

दोपहर तक हम लोगोंने कई कागजात भरे जिनमे एक ज्वाइनिंग रिपोर्ट भी था। सबको एक टाइप किया कागज पकडाया गया जिसमें एक शपथ लिखी हुई थी। अगली सुबह उसे कक्षामें ले जाना था।

अगली सुबह डायरेक्टर श्री राजेश्वर प्रसाद आये। खचाखच भरे हॉलमें सभी चुने हुए अफसरोंको शपथ दिलाई गई कि हम संविधानके प्रति एकनिष्ठ रहते हुए देशकी सेवामें पूरा कौशल लगा देंगे। फिर डायरेक्टरने एक लम्बासा भाषण दिया जिसमें उन्होंने स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्रीके कुछ किस्से सुनाये। वे कभी शास्त्रीजीके सचिवके नाते काम कर चुके थे। शास्त्रीजी मेरे व कईयोंके हीरो थे। इसलिए वे व्यक्तिगत अनुभववाले किस्से मनको छू गये। उसी रौमें उन्होंने सबको बता दिया कि सभीको बारीबारीसे सप्ताहमें दो दिन श्रमदान करना होगा।
धीरेसे बात समझाई गई कि यहॉं की रूटीन बाहुत ही कडी होगी। सुबह पांच बजे या तो घुडसवारी जो IAS IPS के लिये अनिवार्य और बाकी सबके लिये ऐच्छिक थी, या फिर पीटी, या योग, या श्रमदान। फिर नौ बजेसे शाम ५ बजेतक लेक्सर्स। बीचमें टी ब्रेक, लंच ब्रेक भी। परिक्षा भी होगी और पास होना अनिवार्य होगा। इसके अंकोंके कारण आपकी सिनिऑरिटी आगे पीछे हो सकती है। कईयोंको इसका अर्थ समझ नही आया और वे बेपरवाह रहे तो कई दूसरे जी जानसे अधिक नंबर लानेके प्रयासमें जुट गये।

पढाईके विषय थे संविधान, पोलिटिकल थियरीज, पब्लिक अॅडमिनिस्ट्रेशन । साथमें क्रिमिनल लॉकी त्रिविध घुट्टी अर्थात् एविडंस अक्ट, CrPC एवं IPC. इसके अलावा basics of computers, हिंदी। बीच बीचमें कोई खास खास लेक्चरर्स भी आते तो उनके पाठके स्नॅप टेस्ट इत्यादी ।

क्रिमिनल लॉ पढानेवाले श्री गुरुमूर्ति और उनका तरीका मेरे प्रिय बन गये। वे कभी सेशन्स जज रह चुके थे। मेरी IAS की परिक्षाके लिये भी मैंने कॉण्ट्रॅक्ट अॅक्ट विषय चुना था और पटना युनिवर्सिटीके कोचिंग क्लासेसमें उसे पढानेवाले रमाकान्तजी भी बडे धाकड शिक्षक थे। इन दोनोंके कारण मुझे लॉकी अच्छी समझ हुई थी जो पूरी नोकरी भर काम आई।

हिंदीके लिये मुझे व कइयोंको छूट मिल चुकी थी। लेकिन राजी, जलजा, जैसे कुछ प्रशिक्षार्थियोंको हम पढा दिया करते थे । कम्प्युटर्सकी पढाई अतीव प्राथमिक थी - उसका अल्गोरिथम, प्रोग्रामिंग प्रिन्सिपल्स या फिर बेसिक या कोबाल्ट जैसी लॅंग्वेजेस, इतने भरतक कम्प्युटरकी पढाई सीमित थी। इसे पढानेवाले श्री चंद्रशेखर रेलवे इंजिनियरिंग सर्विसेसके अधिकारी थे। रेलवेमें संगणकके प्रयास तब अधिकतासें चल रहे थे, उसके कई किस्से वे सुनाते - कभी कभी सिस्टमकी अदूरदर्शिताकी भी बातें होती थीं।

पब्लिक अॅडमिनिस्ट्रेशन तथा पोलिटिकल थिअरिज - ये दोनों मेरे अप्रिय विषय थे। पब्लिक अॅडमिनिस्ट्रेशनके क्लासमें शुरुआती दिनोंमें ही मेरा विवाद छिड गया। श्री चारी महाराष्ट्र काडरके एक वरिष्ठ IAS यह विषय पढाते थे। ब्यूरोक्रसीके विषयमें पढाने लगे -- ब्यूरोक्रसी इम्पर्सनल होती है। मैंने टोक दिया - नही हो सकती, जो निर्णय लेनेवाला अधिकारी है, उसकी पर्सनल मान्यताएँ उसके निर्णयको अवश्य प्रभावित करेंगी । लम्बा विवाद चला। मैं तब भी स्टूडेण्टकी भूमिकानेंही विचार कर रही हूँगी । वरिष्ठ IAS अधिकारी होते होंगे - पर मुझे यदि गलत प्रतीत होता है तो शंका समाधान होनेतक प्रश्न पूछना और विवाद करना मेरा हक बनता है, यही समझकर मैं बहस करती रही।

यह अख्खडपन एक नितान्त बिहारी गुण है और मराठी गुण भी। तो मुझमें कुछ अधिकतासे ही आ गया है। पूरे क्लासमें जो जो पहलेसे ही पब्लिक अॅडमिन पढकर आये थे वे कह रह थे - क्यों बहस करती है - यह तो बिलकुल प्राथमिक ज्ञानकी बात है। पर कई लोग मेरा सपोर्ट भी कर रह थे। आखिर क्लास रोककर सबको छुट्टी दी गई । जाते हुए उन्होंने इतना अवश्य कहा कि परीक्षामें ऐसा ही उत्तर लिखोगी तो नंबर नही मिलनेवाले। तब कुछ शुभचिन्तकोंने समझाया -- तुम्हें महाराष्ट्र काडर मिल गया तो ये तुम्हारे सीनियर होंगे - फिर तुम्हें मजा चखायेंगे।

लेकिन यह समझाना बेकार रहा - उस दिनसे आजतक मेरी मान्यता यही है की ब्यूरोक्रसी इम्पर्सनल नही हो सकती और होनी भी नही चाहिये। इसमें आनेवाले हर व्यक्तिका अपना व्हॅल्यु सिस्टम होता है - अर्थात् अपना नैतिकताका मापदण्ड। उसके द्वारा किया जाने वाला निर्णय तथा काम वह इसी मापदण्डके आधारसे करता है। नियमोंके दायरेमें रहकर भी वह अपना मापदण्ड लगा सकता है, जब चाहे नियमोंके जंजालसे रास्ता निकाल सकता है और दूसरोंको प्रभावित कर सकता है। इस संबंधमें मेरे कार्यकालके अन्तिम वर्षोमें घटी एक घटना उल्लेखनीय है।

मेरे कार्यालयके दो ऐसे अधिकारी थे जिनकी क्षमता तो थी लेकिन मनोयोगसे काम नही करते थे। मैं काम नही करता, कौन मेरा क्या उखाड लेगा - वाला रवैया था। मैने सप्ताहमें एक दिन सभी अधिकारीयोंके साथ आधा घंटा चायहेतु रखा था - तब हम फाइलोंकी बात नही करते थे। तो एक दिन मैंने सबसे पूछा - यदि कभी आप घरपर परिवार व बच्चोंके साथ ऑफिसकी चर्चा करते हैं तो क्या बताते हैं ? या तो आप कह सकते हैं कि देखो मैं कितना स्मार्ट हूँ, सरकारको कितना बुद्धु बनाता हूँ, कि बिना काम किये ही पूरी पगार लेता हूँ । या आप कह सकते हैं कि आज मेंने अपनी फाइलमें ऐसा ऐसा निर्णय लिया जिससे देश एक डगही सही पर आगे बढा है। दोनों ही कारणोंसे आप परिवारको कह सकते हैं कि उन्हें आपपर गर्व होना चाहिये।

प्रायः सभीने ना में सिर हिलाया। "नही, पहली बात कहकर हम उन्हें गर्वकी भावना नही दे सकते।"

चाय समाप्त हुई - बात आई गई हुई। अगले कुछही दिनोंमें मैंने महसूस किया कि उन दोनों अधिकारियोंके काम करनेका तरीका बदल गया था । अब मैं किसी भी फाइलकी या कामकी जिम्मेदारी उनपर डाल सकती थी। वही आकर मुझसे चर्चा करने लगे कि इस कामको ऐसे ऐसे अधिक प्रभावी किया जा सकता है।

काश की हमें पब्लिक अॅडमिनमें यह पढाया जाय कि अधिकारियोंका पर्फॉमंस इम्पर्सनल नही होता बल्कि उनके व्यक्तिगत नैतिक मापदण्डके आधार पर चलता है। जब यह बात समझमें आयेगी और उसी आधारसे प्रतियोगी परिक्षाओंमें चयन होगा, तब ब्यूरोक्रसीमें अलगसे अॅडमिनिस्ट्रेटिव्ह रिफॉर्म्सकी आवश्यकता नही रहेगी।

--------------------------------------------------------------------------------

No comments:

Post a Comment