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Monday, October 1, 2018

गर्भनाल लेख २ - लखनऊ स्टेशनसे

लखनऊ स्टेशनसे
लेख २
गर्भनाल एप्रिल २०१९

लखनऊ स्टेशनकी वह दोपहर मेरे मनःपटलपर अमिट भावसे उकेरी हुई है। दिन रहा
होगा ११ जुलाई १९७४। लम्बासा प्लॅटफॉर्म, बेतहाशा भीड, दौडते भागते लोग। उन्हींमेंसे एक
मैं भी। लखनऊ दिल्ली गाडीके आनेका समय हो चला था। कुलीसे मैंने कहा था कि भैया,
जनाना डिब्बेमें बिठा देना । उसके सिरपर एक होल्डॉल, दो सूटकेस, और एक कंधेसे लटका
थैला। मेरे पास भी एक सूटकेस, एक खानपानका थैला और एक पर्स। उसके पास रखे चार
सामानोंंमें मेरे अगले पूरे वर्ष तक मसूरीमें रहनेका इन्तजाम था अर्थात्, कपडे, ओढने-बिछाने,
पुस्तकें, जूते-वूते, गहने-साजश्रृंगार वगैरा सबकुछ ।

गाडियँ आती हैं - भीड उमडती है। कोई मुझे बताता है लखनऊ-दिल्ली गाडी दूसरे
प्लॅटफॉर्मपर आ रही है। भीडके साथ मैं भी दौडती हुई, सीढीयॉ चढती उतरती हुई किसी तरह
उस दूसरे प्लॅटफॉर्मपर पहुँचकर जनाना डिब्बा खोजकर उसमें एक खिडकी पकड लेती हूँ। पीछे
बाकी भीड भी डिब्बेमें घुस रही है। अब मुझे सुध आती है कि कुली किधर है यह तो मैंने देखा
ही नही । अब क्या करूँ – उतरुँ या बैठूँ । उतरनेके लिये रास्ता बनाते बनाते भी देर लगनेवाली
है। बारबार खिडकीसे झाँककर देख रही थी । गाडीका सिग्नल पीला हो गया तो मेरी छटपटाहट
बढने लगी। तभी दूरसे वह आता हुआ दिखा। उन दिनों खिडकीयोंपर बार नही लगे होते थे और
खिडकीसे सिर निकालकर दूर तक देखा जा सकता था। वह दिखा तो जानमें जान आई। वह
भागा भागा चला आ रहा था। खिडकीसे ही उसने सामान थमाया। कहा - उधर भी एक
जनाना डिब्बा है, मैंने आपको कहा था कि मेरे पीछे आओ- लेकिन आप इधर आ गई। वह
अपनी बूढी आयुका पूरा फायदा उठा रहा था । मैंने उसे पैसे दिये – उतने ही जितने तय हुए थे,
और उसने भी जादा नही मॉंगे। गाडी चल पडी।

अगले कई घण्टोंतक मैं ईमानदारी नामक सामाजिक गुणके निषयमें सोचती रही। वह मेरा
सामान लेकर कहीं निकल जाता या गाडीके चलने तक मुझे खोज ही न पाता तो। लेकिन
जबतक समाजमें ईमानदारी है, तबतक मेरी इस प्रकारकी छोटी मोटी भूलोंके लिये क्षमा है।

जब कुछ देर तक समाज परिशीलन हो गया तो पिछले दस दिनोंके घटनाक्रमने मेरे
मनकी बागडोर थामी और मनने वही पन्ने पलटना आरंभ किया।

मई महिनेमें शादी होकर मैं नई नवेली दुल्हन बनकर कलकत्ता आई थी। यूपीएससीकी
मौखिक परीक्षा एप्रिलमें ही हो गई थी और रिझल्टका इन्तजार था । यदि सिलेक्शन हुआ तो
जुलाईमें ट्रेनिंगके लिये मसूरी जाना पडेगा। हमारी शादी तय होते ही मेरे ससुरजीने गुरुवारके
उपवासका व्रत लिया था, कि मेैं चुनी जाऊँ। यह श्रद्धा भी समाजमें बडी ऊर्जा और संबल भरती
है। इधर मेरी मॉंने भी शनिवारके उपवासका व्रत ले रखा था । सबके आशीर्वाद और मेरी
मेहनतका फल, जूनमें पता चला कि मेरा IAS में सिलेक्शन हो गया है। सुदूर स्थित मेरे
जन्मगाँव धरणगाँवके विधायक तथा महाराष्ट्रमें तत्कालीन रेवेन्यूमंत्री श्री मधुकरराव चौधरीने
दरभंगामें मेरे पिताजीको अभिनंदनका तार भेजा था जो उन्होंने आगे कई वर्षोंतक संभालकर
रखा था। ।

अब मुझे फटाफट हजार काम करने थे। मैं पहले दरभंगा आई जहॉं मातापिता भाईबहन
और मेरा काफी सामान था और जहॉं मैंने बचपनके पंद्रह वर्ष गुजारे थे । फिर पटनाके लेडीज
होस्टेलमें भी मेरा सामान पडा था। मगध महिला कॉलेजमें, जहॉं मैं लेक्चरर थी - वहाँ
औपचारिक पत्र देना था कि आगेसे मैं नही आऊँगी। पटना युनिवर्सिटीसे मेरा PHD का
रजिस्ट्रेशन था । उनसे पूर्वसम्मति मिल चुकी थी कि IAS में सिलेक्ट हुई तो NOC देंगे । वह
लेना था । पटना होस्टेलसे सारा सामान दरभंगा ले जाकर नये सिरेसे अगले एक वर्षके ट्रेनिंगके
लिये सामानकी पॅकिंग करनी थी । थोडी बहुत पैसेकी व्यवस्था करनी थी। और ढेर सारे मित्र-
सहेलियॉं-गुरुजन-परिचितोंसे विदाई लेनी थी । दरभंगाके सीएम कॉलेज जाकर सबसे, और
खासकर फिजिक्स डिपार्टमेंटके प्राध्यापकोंसे मिलना था । मेरे श्रेयमें उनके अध्यापन व
प्रोत्साहनका विशेष महत्व था । सीएम कॉलेजसे पढकर IAS में आनेवाली मैं पहली स्टूडेण्ट
थी।

पर जो काम अनिवार्य था और नही हो रहा था, जिसके बिना सारा कुछ धरा रह
जानेवाला था, वह था यूपीएससीका पत्र – जो नही आ रहा था ।

दरभंगामें पोस्टेड एक सीनियर IAS श्री अडिगे मेरे पिताके मित्र थे । मेरे IAS के लिये
उन्होंने पिताजीको कई बार सलाह दी थी । उन्होंने कहा दिल्लीमें यूपीएससीके कार्यालयमें
जाकर वह पत्र लेना होगा, वरना नियत दिनांकको ज्वाईन न करनेपर मुश्किल होगी । सो मेरा
छोटा भाई सतीश दिल्ली गया और फिर तार व टेलीफोनसे उसने खबर भेजी – दीदीको तुरंत
रवाना करो- १४ जुलाईको ज्वाईन करना है । वह ९ जुलाइकी दोपहर थी – समय बिलकुल
नही था । रेलका रास्ता तय हुआ - १० तारीखको दरभंगासे समस्तीपुर, वहाँसे लखनऊमें गाडी
बदलकर दिल्ली और १२ को दिल्लीसे देहरादून रवाना होना।

अगली सुबह पिताजी मुझे समस्तीपुरतक छोडने आये । अकेले रेलयात्राका यह पहला
मौका नही था । दरभंगा-पटना-मुगलसराय-इटारसी-जलगांव-धरणगांव मार्गपर मैंने पहले कई
बार अकेले यात्रा की थी। पिताजीको भी मेरे निभा लेनेकी क्षमतापर विश्वास था । फिर भी कई
प्रकारसे सूचनाएँ देकर मुझे लखनऊकी गाडीमेंं बिठाया । वहाँसे बीसेक घंटेकी यात्रा करके मैं
लखनऊ पहुँची थी । वहीं प्लॅटफॉर्मकी सुविधाओंका उपयोग कर स्नान भी कर लिया था । उन
दिनों हर स्टेशनपर रेल्वेके साफसुथरे प्रतीक्षालय हुआ करते थे जिनमें सामान्यजन भी सुविधा
लेते हुए अपनी जरूरतें निपटा सकते थे । हर बडे स्टेशनपर स्वादिष्ट पूरी-सब्जी, पीनेका शुद्ध
पानी आदि सुविधाएँ होती थीं । परेशानी थी तो बस ढेर सारे सामानके कारण । लेकिन चलो,
अब तो गाडी पूरे वेगसे दिल्लीको जा रही है।

अगले दिन दिल्ली स्टेशनपर सतीश मुझे लिवाने आया था । यूपीएससीसे सारे जरुरी
पत्र तथा कागजात ले लिये थे। उसके स्कूली मित्र धनंजयके बडे भाई जिन्हें हम नारायणभैया
कहते थे, उनके घर पर पहुँचे । वे भी केंद्र सरकारके राजभाषा विभागमें अधिकारी थे । वहाँसे
दरभंगा, कोलकाता व मुंबईमें समाचार भिजवाया कि अबतक सबकुछ ठीकठाक है।

शामको दिल्ली-देहरादून जानेके लिये मसूरी एक्सप्रेसमें बर्थकी रिजर्वेशन कर रखी
थी - वहॉं स्थानापन्न हुई । सतीश जाकर अखबार, पानी, कुछ फल ले आया । अब वह कुछ
कहनेवाला ही था कि अचानक एक भूचालसा हुआ । मेरी ही तरह ढेरसा सामान लिये तीन
महिलाएँ अंदर आईं और मेरे सामनेवाली सीट पर कब्जा किया । उनकी अनवरत बातें चल
रही थीं । अंग्रेजी और तमिलमें यात्राहेतु दी जानेवाली हिदायतोंका सैलाब आ गया । फिर ट्रेनके
चल पडनेकी आशंकासे एक युवतीको छोड दूसरी युवती तथा एक प्रौढ महिला जो निश्चित
उनकी मॉं थी, दोनों उतर गईं। लेकिन हिदायतें चालू रही । किसी तरह उन्हें रोककर
मैंने सहयात्री युवतीसे परिचय पूछा और लो, उसे भी मसूरी जाना था - उसी मसूरी अकादमीमें
 IAS प्रशिक्षणके लिये । सतीशने सबको सुनाते हुए मुझे कहा - हॉं तो दीदी, अब सारी
आवश्यक हिदायतें तुमने सुन ही ली हैं, मेरे कहने लायक कोई अलग बात नही बची ।
सब हँस पडे और ट्रेन रवाना हुई।

रास्तेमें राजलक्ष्मी से बातें होती रही । वह दिल्लीके उच्च-मध्यमवर्गके परिवारसे थी,
फर्राटेदार तमिल, हिंदी व इंगलिश बोलती थी । उसके पिताजीका देहान्त हो चुका था और
माँने ही उसे बडा किया था और IASका सपना भी दिखाया था । हम एकदूसरेसे अपने
परिवार, पढाई, शौक, मित्रमंडली आदिके संबंधसे बातें करते रहे।

अगली सुबह देहरादूनसे मसूरीके लिये टॅक्सी पकडी । राजीका परिचित एक और प्रशिक्षणार्थी
भी मिल गया जो पोस्टल सर्विसके सिलेक्ट हुआ था। मसूरी अकादमी पहुँचकर ज्वाइनिंग रिपोर्ट
दी । अकादमीके लोगोंने कुछ और भी कागजोंपर हस्ताक्षर करवाये। उनमें किसीपर एक
छोटीसी तनख्वाहका विवरण था । फिर राजीने समझाया कि इस बेसिक सॅलरीमें डीए आदि
अन्य अलाउंस मिलाकर रकम बडी हो जाती है । अच्छा लगा कि कॉलेजमें फिजिक्सके
लेक्चररकी अपेक्षा यह तनख्वाह थोडी ज्यादा थी । लेकिन यह जानकारी मुझे नही, पर राजीको
है, यह क्योंकर ? उसने कहा कि बडे शहरोंमें ऐसी जानकारी सबको मिलता रहती है - आगे भी
कोई व्यावहारिक मुद्दा हो तो मुझसे सीख लिया करना । यह सरल था क्योंकि संयोगवश मुझे
और राजीको लेडीज होस्टेलमें एक ही कमरा अलॉट हुआ था । मैंने फिर एकबार समाजकी
भलमानसाहतका आभार माना। इस प्रकार एक वर्षके मसूरी ट्रेनिंगकी पूर्वपीठिका तैयार हो
गई।
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