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Thursday, October 4, 2018

गर्भनाल ५ संस्मरणीय मसूरी प्रशिक्षण

लेख --   संस्मरणीय मसूरी प्रशिक्षण 

गर्भनाल जुलाई २०१९
पांचवीं किस्त

मसूरीकी लाल बहादुर शास्त्री प्रशासकीय अकादमी में चलनेवाला प्रशिक्षण कई अर्थोमें संस्मरणीय एवं आनंददायी था। करीब आधे लोग ऐसे थे जो मेरी तरह सीधा विद्यार्थी जीवनसे या एका वर्षकी लेक्चररी करके यहॉं आये थे लेकिन लगभग आधे ऐसी भी थे जो जीवनकी अगली गतिविधियों अर्थात् अन्य नौकरियॉं आदि करके इसमें आये थे। कई लोग ऐसे थे जो पिछले एक-दो वर्षोंमें यूपीएससीकी अन्य सर्विसेसकी परिक्षा पास होकर मसूरीका आरंभिक प्रशिक्षण कर चुके थे लेकिन इस वर्ष IASमें आ गये थे। उन्हें हमारे साथ दुबारा क्लासेस अटेंड करने या परिक्षा देनेकी आवश्यकता नही थी। सो सुबह पाचसे सात बजेकी गतिविधियोंके सिवा वे कही नही दिखते थे - उनके लिये ग्रामविकासके कुछ प्रोजेक्ट करवाये जाते थे । लेकिन कई उत्सव, खेल प्रतियोगिताएँ और फॉर्मल डिनरमें हमलोग एक साथ हुआ करते थे।

हमें संविधान पढानेवाले प्रो. माथुर बादमें एक लीजेण्ड बन गये। संविधानके आमुख (प्रीएंबल) पर ही वे करीब १०-१५ लेक्चर्स लिया करते और विभिन्न उदाहरणोंसे समझाते कि कैसे उसमें प्रतिपादित आदर्श ही संविधानकी प्रत्येक धाराहेतु दिशानिर्देशक हैं। उससे मुझे स्मरण आता है कि बचपनमें मैं जब भी पिताजीके साथ किसी विषयकी पढाई करने बैठती तो वे सदा उस पुस्तकके आरंभिक पन्ने खोलकर प्रास्ताविक पढनेके लिये कहते। कोई भी पुस्तक लिखते हुए लेखकका उद्देश क्या है, वह किन बातोंसे प्रभावित होकर पुस्तक लिख रहा है, इत्यादि जानना आवश्यक है और इन्ही बातोंको वह प्रास्ताविकमें अभिव्यक्त करता है। इसलिये पुस्तक पढनेसे पहले उसकी प्रस्तावना पढनी चाहिये यह पिताजीकी सीख थी। नौकरीके कार्यकालमें मुझे कभी कभी नये कानून बनानेकी प्रक्रियामें सहभागी होनेका अवसर मिला। त देखा कि कैसे पहले नये कानूनकी आवश्यकता और उद्देश लिखे जाते हैं - और उसके पश्चात ही प्रस्तावित कानूनकी धाराएं लिखी जाती हैं। ऐसे हर मौकेपर माथुरजी द्वारा संविधानकी पढाई और उसके आमुखका, साथ ही प्रास्ताविक पढनेकी पिताजीकी सीखका भी स्मरण हो जाता था। ।

सप्ताह में दो दिन श्रमदान अनिवार्य था। काम था खेलके मैदानको सपाट बनाना। इसके लिये फावडे रखे थे और एक गीत भी तैयार रखा हुआ था फावडे, चल दनादन फावडे। यह डायरेक्टरका मनचाहा विषय था और वे प्रायः हर दिन श्रमदानके लिये मैदानमें आ डटते। तो कई अधिकारी जो श्रमदानसे तो कन्नी काटते थे परन्तु उनके सम्मुख पडनेपर यही गीत गुनगुनाना आरंभ कर देते। अकादमीगीतके हेतु रवींद्रनाथका अजरअमर गीत चुना गया था --
रहो धर्ममें धीर, रहो कर्ममें वीर, रहो उन्नतशीर, डरो ना
ोहो धर्मेते धीर, ोहो कर्मेते वीर, रोहो उन्नतशीर, नाही भय ।
भूली भेदाभेद अज्ञान, रहो शोबे अगुआन, साथे आछे भगवान, नाही भय ।।
इसकी हिंदी, बंगाली, मराठी इत्यादि अंतराएँ भी अकादमीगीतमें थीं और लोकमान्यता प्राप्त कर चुकी थीं । तो डायरेक्टरके सम्मुख वह भी अक्सर गुनगुनाया जाता।

IAS IPS के लिये घुडसवारी अनिवार्य थी और कई प्रशिक्षार्थी इस बातपर झुंझलाये रहते। हमारे इन्स्ट्रक्टर श्री नवलसिंह आर्मी से निवृत्ति पश्चात् मसूरी आये थे । कई अधिकारी ऐसे थे जिन्हे घोडोंसे लगाव था। उन्हें अस्तबलमें जाकर घोडोंका दानपानी, मालिश, उनके जीनका रखरखाव व सफाई इत्यादी बातें सीखनेकी इच्छा थी। ऐसे अधिकारी नवलसिंहके विशेष प्रिय थे और इन्हींमे मेरा भी नंबर था। मैं कोई तेजतर्रार घुडसवार नही बन पाई लेकिन घोडेकी चारो प्रकारकी चाल, अर्थात वॉक, ट्रॉट, कॅण्टर औऱ गॅलप पर मुझे अच्छी पकड आ गई थी।मैं कई बार अतिरिक्त घुडसवारी के लिये भी चली जाती थी जो राजीके लिये मजाकका विषय था। लेकिन मैंने देखा कि मेरे अपरोक्ष दूसरोंके सामने वह मेरी घुडसवारीपर नाज जताया करती थी। मेरी एक मित्र थी जलजा । य़ह अकादमीकी सबसे ठिंगनी प्रशिक्षणार्थी थी औऱ अक्सर घोडेपर चढनेके लिये उसे किसीकी सहायता लेनी पडती। तो एक बार नवलसिंहने क दिया कि अरे, इन मॅडमके लिये आगेसे सीढी लाया करना। नवलसिंहके ऐसे कटाक्षोंसे सारे अधिकारी चिढे रहते थे। लेकिन जलजा एक प्रसन्नहृदय व्यक्तित्वकी धनी तथा अच्छी कार्टूनिस्ट भी थी। अगले दिन नोटिस बोर्ड पर बडासा कार्टून टंगा था जिसमे घोडेको सीढी लगाकर उसपर चढती हुई जलजा जिसके गालोंपर आसू रहे थे और पासमें बडे आकारमें नवलसिंह जो कह रहे थे - मॅडमकी सीढी संभालो। इस कार्टूनमें बना जलजाका चेहरा ऐसा था जिसे देखकर कोई भी से बिना नही रह सकता था लेकिन नवलसिंहका चेहरा गुस्सेवाला न होकर एक अच्छी भावना रखनेवाले अभिभावके जैसा था। लंच-ब्रेकमें सबने देखा कि नवलसिंह जलजाके पास आकर उससे अनुमति चाह रहे थे - मेरा इतना अच्छा चित्र आपने बनाया - कृपया आप मुझे गिफ्ट कर दें। उस दिनके बाद उनकी घुडकियाँ करीब करीब बंद हो गईं। कई बार हम गंभीर प्रसंगोमें भी अपनेपर आई बातोको सहजतासे स्वीकार करना सीखें तो ऐसे प्रसंगकी बुराई या कटुता टाली जा सकती है। लेकिन इसके लिये चाहिये ऐसा निर्भय ह्रदय जो अपने आपको दूसरोंकी नही वरन स्वयंकी आँखसे तौलता है।

मसूरीमें सारे राष्ट्रीय उत्सव बडे उत्साहसे मनाये जाते। हर तैयारीसे पहले हमें बताया जाता कि आगे चलकर ऐसे उत्सव आयोजित करनेका उत्तरदायित्व हमारे कंधोपर आ सकता हैं अतः हमें इन उत्सवोंमें भाग लेना चाहिये। सबसे पहला उत्सव था पंद्रह अगस्त। इसके लिये नियत हुआ कि अलग अलग राज्योंसे आये प्रशिक्षणार्थी अपनी अपनी भाषाके गीत समूहगानके माध्यमसे प्रस्तुत करेंगे। मुझे कहा गया - तुम मराठी ग्रुपमें जाओ। मैंने पूछा हिंदी क्यों नही? या बंगाली क्यो नही - जो मुझे आती है? मुझे बताया - एक प्रशिक्षणार्थी एक ही ग्रुप चुन सकता है।

अनन्तः मैंने मराठी ग्रुपमें ही भाग लिया क्यों कि उस ग्रुपमें कविता याद रखनेवाले और गानेवाले बहुत कम थे। लेकिन इसी उत्सवके समय एक मॉक जगणना कार्यक्रम हुआ कि किसकी भाषा क्या है। मेरे सम्मुख फिर प्रश्न उठा कि यदि मुझे तीन भाषाएँ आती हैं तो मुझे केवल एकको चुननेका आग्रह क्यों किया जा रहा है? मेरी मातृभाषा अर्थात् जिस भाषामें मेरी मॉं बोलती है - वह मराठी है और मुझे उसपर अभिमान भी है। बिहारमें पढाई करनेपर भी मराठीपर मेरा प्रभुत्व था। हम लोग प्रति वर्ष गर्मियोंकी छुट्टियोंमें महाराष्ट्र जाते थे। मेरे जन्मगा धरणगामें मेरे परदादा, दादा व पिताका घर था, वहॉं डेढ दो मास व्यतीत करते थे। तब मैं अपने चचरे भाई बहनोंके साथ स्कूल जाती और उनकी मराठी पुस्तके पढा करती थी। घरमें पूरा मराठी वातावरण था। मॉंने अंत्याक्षरी खेलनेके बहाने सैकडो मराठी गीत कविताएँ सिखाई थी। मराठीका तत्कालीन अग्रगण्य दैनिक लोकसत्ता हमारे घर पोस्टसे आता था। तीन-चार मासिक पत्रिकाएँ आती थी। पिताजी तुलसीरामायण के साथ ज्ञानेश्वरी ग्रंथका पाठ करते थे। ढेरो मराठी उपन्यास हमारे पढाकू संस्कारोंका हिस्सा थे। लेकिन हमने उतनी ही लगन और गहराईसे हिंदी भी पढी थी। स्कूलमें विद्यापती पदोंपर नाट्य-नृत्य प्रस्तुतियॉं की थी। जयशंकर प्रसाद, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त आदि राष्ट्रकवियोंकी कविताएं भी रटी हुई थी । रवींद्रनाथ ठाकूर व शरच्चंद्रको हिंदी के साथ-साथ बंगालीमें भी पढा था। फिर मैं तीनो भाषाओं की संख्यावृध्दि क्यो न करूँ? किसीने मुझसे कहा - यदि हिंदी या बंगाली भाषिकोंकी सूचीमे तुम्हारा नाम न आया तो क्या अन्तर पडता है ? मैने पूछा यदि किसी भी सूचीमें मेरा नाम नही आया तो क्या अन्तर पडता है ? लेकिन तीनों सूचियोंमें मेरा नाम आये और मेरे कारण तीनों भाषाओंकी संख्यावृद्धि हो तो उन-उन भाषाओंको क्या लाभ है यह तब मेरी समझमें नही आया। शायद किसीको समझमे न आया हो, क्योंकि क्या अन्तर पडता है पूछेनवाले तो कई थे लेकिन हॉं, अन्तर पडता है कहकर समझानेवाला तब कोई नही था।

बहुत बादमें विश्वकी २० प्रमुख भाषाओंकी सूची देखी। उसमें हिंदी सहित भारतकी अन्य भाषाएँ बांग्ला, पंजाबी, तेलगू, मराठी और तमिल भी समाहित थीं इन्हें तथा लाखो-करोडों अन्य भाषियोंको हिंदी भी आती है। लेकिन एक भारतीय भाषा जाननेवालोंकी संख्यामें अन्य भाषाएँ जाननेवालोंके आँकडे शामिल नही हैं। इसी कारण तमिल माराठी या बांग्ला जाननेवालोंके आँकडे हिंदीकी संख्यावृद्धि नही करते, भलेही उन्हें हिंदी आती हो। उलटे आज भोजपुरी, राजस्थानी, मारवाडी इत्यादि भाषाओंकी विश्वगणना करनेकी माँगपर विचार होता है तब हिंदी बोलनेवालोंकी संख्यासे वे भाषाएँ बोलनेवालोंकी संख्या घटा दी जाती है। इससे वैश्विक बाजारमें हम हिंदीकी साख व धाक खो देते हैं। एक देशके लिये यह घाटेकी बात है जिसकी हानि हर भाषाभाषीको उठानी पडती  है। 
हमने स्वयं ही कभी इस बातको  ना तो पहचाना कि संस्कृतमूलक होनेके कारण सारी भारतीय भाषाएँ एकात्म हैं, उनकी वर्णमाला, वाक्य-रचना, शब्दभंडार व व्याकरण एक समान है, और ना ही विश्वनीतिमें इसका लाभ उठानेकी सोची। वैश्विक बाजारका एक उदाहरण मैंने हालमें ही देखा कि जब व्हॉट्सएपने सर्वेमे पाया कि व्हॉट्सएपपर मराठीका चलन बढ रहा है तो तुरंत मराठीके लिये कुछ खास सुविधाएँ निर्माण की गईं। दूसरा उदाहरण दिखा जब तमिल फिल्म अरुंधतीके हिंदी संस्करणके बाद उसीका भोजपुरी संस्करण भी देखा। इसीलिये हमारा लक्ष्य होना चाहिये कि भारतकी सभी भाषाएँ विश्वपटलपर धाक जमायें जो कि उनकी एकात्मताके कारण सहजसाध्य है। लेकिन यह तभी संभव है जब हम व्यक्तिके रेकॉर्डके साथ साथ भाषाके रेकॉर्डपर ध्यान दें। इसलिये मेरे विचारसेगणनामें यह पूछा जाना चाहिये कि आप कौनकौनसी भारतीय भाषाएँ जानते हैं। ऐसा करने से हम अपनी सभी भाषाओंको विश्वसम्मान दिला सकते हैं
खैर, यह तो विषयान्तर हो गया। लेकिन मैंने यह चर्चा इसलिये की है कि पता चले कि मसूरीका यह एक वर्षीय प्रशिक्षण नये अधिकारियोंको क्या क्या सिखा जाता है औ उनके विचारोंको कैसे प्रगल्भ करता है।
जल्दीही मसूरीमें वर्षा ऋतु आ गई। कडाकेकी ण् निर्माण करती हुई बारिशमें रातका खाना खा लेनेके बाद कोट-रेनकोट आदिसे लैस होकर हो-हल्ला मचाते हुए अकादमीसे मसूरीके बाजार तक जाना और वहॉं बन रहे गरम गरम गुलाब–जामुन खाना हमारी आदत बन गई। उन दो घंटोंमें हम देशकी प्रत्येक समस्यापर जोरशोरसे विचार कर उसे अपने तईं सुलझा लेते थे। हमारा ८-१० जनोंका ऐसा ग्रुप बनजिसके लिये यह एक आवश्यक रुटीन बन गई। उन समविचारी दोस्तोंको अभिवादन।

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