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Thursday, October 4, 2018

गर्भनाल ५ संस्मरणीय मसूरी प्रशिक्षण

लेख --   संस्मरणीय मसूरी प्रशिक्षण 

गर्भनाल जुलाई २०१९
पांचवीं किस्त

मसूरीकी लाल बहादुर शास्त्री प्रशासकीय अकादमी में चलनेवाला प्रशिक्षण कई अर्थोमें संस्मरणीय एवं आनंददायी था। करीब आधे लोग ऐसे थे जो मेरी तरह सीधा विद्यार्थी जीवनसे या एका वर्षकी लेक्चररी करके यहॉं आये थे लेकिन लगभग आधे ऐसी भी थे जो जीवनकी अगली गतिविधियों अर्थात् अन्य नौकरियॉं आदि करके इसमें आये थे। कई लोग ऐसे थे जो पिछले एक-दो वर्षोंमें यूपीएससीकी अन्य सर्विसेसकी परिक्षा पास होकर मसूरीका आरंभिक प्रशिक्षण कर चुके थे लेकिन इस वर्ष IASमें आ गये थे। उन्हें हमारे साथ दुबारा क्लासेस अटेंड करने या परिक्षा देनेकी आवश्यकता नही थी। सो सुबह पाचसे सात बजेकी गतिविधियोंके सिवा वे कही नही दिखते थे - उनके लिये ग्रामविकासके कुछ प्रोजेक्ट करवाये जाते थे । लेकिन कई उत्सव, खेल प्रतियोगिताएँ और फॉर्मल डिनरमें हमलोग एक साथ हुआ करते थे।

हमें संविधान पढानेवाले प्रो. माथुर बादमें एक लीजेण्ड बन गये। संविधानके आमुख (प्रीएंबल) पर ही वे करीब १०-१५ लेक्चर्स लिया करते और विभिन्न उदाहरणोंसे समझाते कि कैसे उसमें प्रतिपादित आदर्श ही संविधानकी प्रत्येक धाराहेतु दिशानिर्देशक हैं। उससे मुझे स्मरण आता है कि बचपनमें मैं जब भी पिताजीके साथ किसी विषयकी पढाई करने बैठती तो वे सदा उस पुस्तकके आरंभिक पन्ने खोलकर प्रास्ताविक पढनेके लिये कहते। कोई भी पुस्तक लिखते हुए लेखकका उद्देश क्या है, वह किन बातोंसे प्रभावित होकर पुस्तक लिख रहा है, इत्यादि जानना आवश्यक है और इन्ही बातोंको वह प्रास्ताविकमें अभिव्यक्त करता है। इसलिये पुस्तक पढनेसे पहले उसकी प्रस्तावना पढनी चाहिये यह पिताजीकी सीख थी। नौकरीके कार्यकालमें मुझे कभी कभी नये कानून बनानेकी प्रक्रियामें सहभागी होनेका अवसर मिला। त देखा कि कैसे पहले नये कानूनकी आवश्यकता और उद्देश लिखे जाते हैं - और उसके पश्चात ही प्रस्तावित कानूनकी धाराएं लिखी जाती हैं। ऐसे हर मौकेपर माथुरजी द्वारा संविधानकी पढाई और उसके आमुखका, साथ ही प्रास्ताविक पढनेकी पिताजीकी सीखका भी स्मरण हो जाता था। ।

सप्ताह में दो दिन श्रमदान अनिवार्य था। काम था खेलके मैदानको सपाट बनाना। इसके लिये फावडे रखे थे और एक गीत भी तैयार रखा हुआ था फावडे, चल दनादन फावडे। यह डायरेक्टरका मनचाहा विषय था और वे प्रायः हर दिन श्रमदानके लिये मैदानमें आ डटते। तो कई अधिकारी जो श्रमदानसे तो कन्नी काटते थे परन्तु उनके सम्मुख पडनेपर यही गीत गुनगुनाना आरंभ कर देते। अकादमीगीतके हेतु रवींद्रनाथका अजरअमर गीत चुना गया था --
रहो धर्ममें धीर, रहो कर्ममें वीर, रहो उन्नतशीर, डरो ना
ोहो धर्मेते धीर, ोहो कर्मेते वीर, रोहो उन्नतशीर, नाही भय ।
भूली भेदाभेद अज्ञान, रहो शोबे अगुआन, साथे आछे भगवान, नाही भय ।।
इसकी हिंदी, बंगाली, मराठी इत्यादि अंतराएँ भी अकादमीगीतमें थीं और लोकमान्यता प्राप्त कर चुकी थीं । तो डायरेक्टरके सम्मुख वह भी अक्सर गुनगुनाया जाता।

IAS IPS के लिये घुडसवारी अनिवार्य थी और कई प्रशिक्षार्थी इस बातपर झुंझलाये रहते। हमारे इन्स्ट्रक्टर श्री नवलसिंह आर्मी से निवृत्ति पश्चात् मसूरी आये थे । कई अधिकारी ऐसे थे जिन्हे घोडोंसे लगाव था। उन्हें अस्तबलमें जाकर घोडोंका दानपानी, मालिश, उनके जीनका रखरखाव व सफाई इत्यादी बातें सीखनेकी इच्छा थी। ऐसे अधिकारी नवलसिंहके विशेष प्रिय थे और इन्हींमे मेरा भी नंबर था। मैं कोई तेजतर्रार घुडसवार नही बन पाई लेकिन घोडेकी चारो प्रकारकी चाल, अर्थात वॉक, ट्रॉट, कॅण्टर औऱ गॅलप पर मुझे अच्छी पकड आ गई थी।मैं कई बार अतिरिक्त घुडसवारी के लिये भी चली जाती थी जो राजीके लिये मजाकका विषय था। लेकिन मैंने देखा कि मेरे अपरोक्ष दूसरोंके सामने वह मेरी घुडसवारीपर नाज जताया करती थी। मेरी एक मित्र थी जलजा । य़ह अकादमीकी सबसे ठिंगनी प्रशिक्षणार्थी थी औऱ अक्सर घोडेपर चढनेके लिये उसे किसीकी सहायता लेनी पडती। तो एक बार नवलसिंहने क दिया कि अरे, इन मॅडमके लिये आगेसे सीढी लाया करना। नवलसिंहके ऐसे कटाक्षोंसे सारे अधिकारी चिढे रहते थे। लेकिन जलजा एक प्रसन्नहृदय व्यक्तित्वकी धनी तथा अच्छी कार्टूनिस्ट भी थी। अगले दिन नोटिस बोर्ड पर बडासा कार्टून टंगा था जिसमे घोडेको सीढी लगाकर उसपर चढती हुई जलजा जिसके गालोंपर आसू रहे थे और पासमें बडे आकारमें नवलसिंह जो कह रहे थे - मॅडमकी सीढी संभालो। इस कार्टूनमें बना जलजाका चेहरा ऐसा था जिसे देखकर कोई भी से बिना नही रह सकता था लेकिन नवलसिंहका चेहरा गुस्सेवाला न होकर एक अच्छी भावना रखनेवाले अभिभावके जैसा था। लंच-ब्रेकमें सबने देखा कि नवलसिंह जलजाके पास आकर उससे अनुमति चाह रहे थे - मेरा इतना अच्छा चित्र आपने बनाया - कृपया आप मुझे गिफ्ट कर दें। उस दिनके बाद उनकी घुडकियाँ करीब करीब बंद हो गईं। कई बार हम गंभीर प्रसंगोमें भी अपनेपर आई बातोको सहजतासे स्वीकार करना सीखें तो ऐसे प्रसंगकी बुराई या कटुता टाली जा सकती है। लेकिन इसके लिये चाहिये ऐसा निर्भय ह्रदय जो अपने आपको दूसरोंकी नही वरन स्वयंकी आँखसे तौलता है।

मसूरीमें सारे राष्ट्रीय उत्सव बडे उत्साहसे मनाये जाते। हर तैयारीसे पहले हमें बताया जाता कि आगे चलकर ऐसे उत्सव आयोजित करनेका उत्तरदायित्व हमारे कंधोपर आ सकता हैं अतः हमें इन उत्सवोंमें भाग लेना चाहिये। सबसे पहला उत्सव था पंद्रह अगस्त। इसके लिये नियत हुआ कि अलग अलग राज्योंसे आये प्रशिक्षणार्थी अपनी अपनी भाषाके गीत समूहगानके माध्यमसे प्रस्तुत करेंगे। मुझे कहा गया - तुम मराठी ग्रुपमें जाओ। मैंने पूछा हिंदी क्यों नही? या बंगाली क्यो नही - जो मुझे आती है? मुझे बताया - एक प्रशिक्षणार्थी एक ही ग्रुप चुन सकता है।

अनन्तः मैंने मराठी ग्रुपमें ही भाग लिया क्यों कि उस ग्रुपमें कविता याद रखनेवाले और गानेवाले बहुत कम थे। लेकिन इसी उत्सवके समय एक मॉक जगणना कार्यक्रम हुआ कि किसकी भाषा क्या है। मेरे सम्मुख फिर प्रश्न उठा कि यदि मुझे तीन भाषाएँ आती हैं तो मुझे केवल एकको चुननेका आग्रह क्यों किया जा रहा है? मेरी मातृभाषा अर्थात् जिस भाषामें मेरी मॉं बोलती है - वह मराठी है और मुझे उसपर अभिमान भी है। बिहारमें पढाई करनेपर भी मराठीपर मेरा प्रभुत्व था। हम लोग प्रति वर्ष गर्मियोंकी छुट्टियोंमें महाराष्ट्र जाते थे। मेरे जन्मगा धरणगामें मेरे परदादा, दादा व पिताका घर था, वहॉं डेढ दो मास व्यतीत करते थे। तब मैं अपने चचरे भाई बहनोंके साथ स्कूल जाती और उनकी मराठी पुस्तके पढा करती थी। घरमें पूरा मराठी वातावरण था। मॉंने अंत्याक्षरी खेलनेके बहाने सैकडो मराठी गीत कविताएँ सिखाई थी। मराठीका तत्कालीन अग्रगण्य दैनिक लोकसत्ता हमारे घर पोस्टसे आता था। तीन-चार मासिक पत्रिकाएँ आती थी। पिताजी तुलसीरामायण के साथ ज्ञानेश्वरी ग्रंथका पाठ करते थे। ढेरो मराठी उपन्यास हमारे पढाकू संस्कारोंका हिस्सा थे। लेकिन हमने उतनी ही लगन और गहराईसे हिंदी भी पढी थी। स्कूलमें विद्यापती पदोंपर नाट्य-नृत्य प्रस्तुतियॉं की थी। जयशंकर प्रसाद, दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त आदि राष्ट्रकवियोंकी कविताएं भी रटी हुई थी । रवींद्रनाथ ठाकूर व शरच्चंद्रको हिंदी के साथ-साथ बंगालीमें भी पढा था। फिर मैं तीनो भाषाओं की संख्यावृध्दि क्यो न करूँ? किसीने मुझसे कहा - यदि हिंदी या बंगाली भाषिकोंकी सूचीमे तुम्हारा नाम न आया तो क्या अन्तर पडता है ? मैने पूछा यदि किसी भी सूचीमें मेरा नाम नही आया तो क्या अन्तर पडता है ? लेकिन तीनों सूचियोंमें मेरा नाम आये और मेरे कारण तीनों भाषाओंकी संख्यावृद्धि हो तो उन-उन भाषाओंको क्या लाभ है यह तब मेरी समझमें नही आया। शायद किसीको समझमे न आया हो, क्योंकि क्या अन्तर पडता है पूछेनवाले तो कई थे लेकिन हॉं, अन्तर पडता है कहकर समझानेवाला तब कोई नही था।

बहुत बादमें विश्वकी २० प्रमुख भाषाओंकी सूची देखी। उसमें हिंदी सहित भारतकी अन्य भाषाएँ बांग्ला, पंजाबी, तेलगू, मराठी और तमिल भी समाहित थीं इन्हें तथा लाखो-करोडों अन्य भाषियोंको हिंदी भी आती है। लेकिन एक भारतीय भाषा जाननेवालोंकी संख्यामें अन्य भाषाएँ जाननेवालोंके आँकडे शामिल नही हैं। इसी कारण तमिल माराठी या बांग्ला जाननेवालोंके आँकडे हिंदीकी संख्यावृद्धि नही करते, भलेही उन्हें हिंदी आती हो। उलटे आज भोजपुरी, राजस्थानी, मारवाडी इत्यादि भाषाओंकी विश्वगणना करनेकी माँगपर विचार होता है तब हिंदी बोलनेवालोंकी संख्यासे वे भाषाएँ बोलनेवालोंकी संख्या घटा दी जाती है। इससे वैश्विक बाजारमें हम हिंदीकी साख व धाक खो देते हैं। एक देशके लिये यह घाटेकी बात है जिसकी हानि हर भाषाभाषीको उठानी पडती  है। 
हमने स्वयं ही कभी इस बातको  ना तो पहचाना कि संस्कृतमूलक होनेके कारण सारी भारतीय भाषाएँ एकात्म हैं, उनकी वर्णमाला, वाक्य-रचना, शब्दभंडार व व्याकरण एक समान है, और ना ही विश्वनीतिमें इसका लाभ उठानेकी सोची। वैश्विक बाजारका एक उदाहरण मैंने हालमें ही देखा कि जब व्हॉट्सएपने सर्वेमे पाया कि व्हॉट्सएपपर मराठीका चलन बढ रहा है तो तुरंत मराठीके लिये कुछ खास सुविधाएँ निर्माण की गईं। दूसरा उदाहरण दिखा जब तमिल फिल्म अरुंधतीके हिंदी संस्करणके बाद उसीका भोजपुरी संस्करण भी देखा। इसीलिये हमारा लक्ष्य होना चाहिये कि भारतकी सभी भाषाएँ विश्वपटलपर धाक जमायें जो कि उनकी एकात्मताके कारण सहजसाध्य है। लेकिन यह तभी संभव है जब हम व्यक्तिके रेकॉर्डके साथ साथ भाषाके रेकॉर्डपर ध्यान दें। इसलिये मेरे विचारसेगणनामें यह पूछा जाना चाहिये कि आप कौनकौनसी भारतीय भाषाएँ जानते हैं। ऐसा करने से हम अपनी सभी भाषाओंको विश्वसम्मान दिला सकते हैं
खैर, यह तो विषयान्तर हो गया। लेकिन मैंने यह चर्चा इसलिये की है कि पता चले कि मसूरीका यह एक वर्षीय प्रशिक्षण नये अधिकारियोंको क्या क्या सिखा जाता है औ उनके विचारोंको कैसे प्रगल्भ करता है।
जल्दीही मसूरीमें वर्षा ऋतु आ गई। कडाकेकी ण् निर्माण करती हुई बारिशमें रातका खाना खा लेनेके बाद कोट-रेनकोट आदिसे लैस होकर हो-हल्ला मचाते हुए अकादमीसे मसूरीके बाजार तक जाना और वहॉं बन रहे गरम गरम गुलाब–जामुन खाना हमारी आदत बन गई। उन दो घंटोंमें हम देशकी प्रत्येक समस्यापर जोरशोरसे विचार कर उसे अपने तईं सुलझा लेते थे। हमारा ८-१० जनोंका ऐसा ग्रुप बनजिसके लिये यह एक आवश्यक रुटीन बन गई। उन समविचारी दोस्तोंको अभिवादन।

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गर्भनाल आरम्भ लेख १ -- प्रशासक और नेता -- 30 वर्षोंकी बात

प्रशासक और नेता  -- 30 वर्षोंकी बात
लेख १
गर्भनाल मार्च २०१९


वर्ष 1978 । एक नया नया आईएएस अधिकारी । असिस्टंट कलेक्टरकी पोस्टिंग, उत्साही युवा मन। अच्छा काम करनेको उत्सुक। कोई गलत काम नही करूँगा, चाहे जितना भी दबाव हो, वगैरह विचारोंसे उत्साहित।

एक दिन एक एमएलए से झड़प हो गई। एमएलए ने कहा यह काम मेरे आदमियोंको लाभ देगा, इसे करो। अफसरने कहा यह नियमके विरुद्ध है, नही करूँगा। एमएलए ने फिर कहा नियममें किसी प्रकार बैठाओ, थोड़ा नियमके अर्थको बदलो - कुछ भी करो, पर काम होना चाहिये। अफसरने फिर कहा यह नियम विरुद्ध है और न्यायभावनाके भी विरुद्ध है, इसलिये नही करूँगा। एमएलए ने कहा -- अपनी बदलीके लिये तैयार रहना, मैं मुख्यमंत्रीतक पहुँच रखता हूँ। अफसर चुप रहा।

10 दिन भी नहीं बीते कि अफसरकी बदलीका आदेश आ गया। राज्यके मुख्यालय शहरमें, मंत्रालयमें अंडर सेक्रेटरीका पद, जो किसी युवा आईएएस अफसरके लिये एक सजासे कम नहीं। इतने ज्यूनियर अफसरको राज्य मुख्यालयके शहरमें कई असुविधाएँ झेलनी पड़ती हैं।

अफसर बेचारा क्या करता। पहुँच गया मंत्रालय। पहला सलाम ठोंका मुख्य सचिवको। एमएलए से झगड़ेकी घटनापर चर्चा हुई। मुख्य सचिवने हँसकर कहा चार दिन पहले मंत्रीमंडलमें फेरबदल हुए हैं और तुम्हारा वही एमएलए मंत्री बना है। और हाँ, तुम्हें उसीके विभागमें पोÏस्टग मिली है। अफसरने कहा सर, कमसे कम मेरा विभाग तो बदल दीजिये। मुख्य सचिवने कहा अरे, उसने खुद तुम्हें वहाँ पोस्ट करनेको कहा है। तुम्हारा विभाग भी बदलना हो तो भी पहले एक बार तुम्हारा मंत्रीसे मिलना आवश्यक है। इसलिये जाओ, उनसे मिलकर फिर मेरे पास आना। 

बेचारा अफसर। मंत्री महोदय के पास पहुँचा। मंत्रीजीने तपाकसे स्वागत किया, आइये आइये। कब ज्वाईन किया? अफसरने कहा - नहीं अभी नही किया और करना भी नहीं चाहता क्योंकि यहाँ भी आपसे झगड़ा ही होता रहेगा।

मंत्रीने कहा, अरे नहीं नहीं। कोई झगड़ा नही होगा। आप आरामसे अपना काम करिये। कोई चिन्ता नहीं। अफसरने कहा सर, मैं फाइलपर कोई निर्णय लिखूँगा जो नियमानुसार होगा, फिर आप कहेंगे निर्णय बदलो, नियमके बाहर हो तो भी बदलो, वरना तुम्हारी बदली करवा दूँगा।

मंत्री अर्थात् वह पुराना एमएलए हँसा। बोला सर, मैंने आपकी बदली करवाई, लेकिन आपके अच्छे कामकी जानकारी भी रखता हूँ। आप यहाँ भी वैसा ही करिये। नेता तो कई बार नियमविरुद्ध काम करवाता है, लेकिन उसे अच्छे काम करनेवाले अफसर भी चाहिये ताकि लोगोंको बता सके कि देखो मैंने ये अच्छे काम करवाये। इसलिये आप अपना काम ईमानदारीसे नियमपूर्वक करिये। मेरे लिये पैसे कमानेका काम करनेवाले दूसरे लोग हैं, आप तो मेरे लिये यश कमाइये।

इसीके आसपासकी दूसरी घटना। एक अफसर। थोड़ा सीनीयर। पोÏस्टगके नये जिलेमें जिला परिषदका प्रमुख अधिकारी बना। चुनावसे जीतकर आनेवाला अध्यक्ष पुराना नेता था। सारे ठेके इत्यादिमें उसीकी चलती थी। एक नई सड़कका ठेका निकला हुआ था। सबसे कम रकमवाला ठेका मंजूर किया जाता है, लेकिन अफसरको बताया गया कि यह ठेकेदार अध्यक्षके चहेते ठेकेदारोंमेंसे नहीं है।

अफसरने अपने पीएसे पूछा जो वयसमें प्रौढ, अनुभवी, और निहायत सज्जन थे। पीएने कहा, आप नियमानुसार सबसे कम रकमवाला ठेकाही मान्य करें, अध्यक्ष आपके निर्णयमें बाधा नही डालेंगे। इनका तरीका अलग है। इनका चहेता ठेकेदार मान्यताप्राप्त ठेकेदारको थोड़ीसी रकम देकर ठेका खरीदेगा -- थोड़ा पैसा अध्यक्षको दिया जायगा और काम वही चहेता आदमी करेगा। हर कोई खुश।

अफसरने पूछा तो फिर अध्यक्षको कम ही पैसे मिलेंगे। पीएने कहा - हाँ इनका प्रतिशत काफी कम होता है। अफसरको फिर भी शंका थी। और काम अच्छा न होनेकी स्थितीमें दण्डवसूली तो मान्यताप्राप्त ठेकेदारसे ही होगी -- उसकी क्या? पीएने कहा -- नहीं, इनकावाला ठेकेदार काममें गड़बड़ नहीं करता है। लेकिन अच्छा काम करनेके बाद भी सरकारी काम मिलनेकी गॅरंटी नहीं होती -- तो ये हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। सर, आप देखना हमारे देशमें ईमानदारी धीरेधीरे लक्झरी बनती जा रही है -- आगे तो कोई जीवटवालाही इसे अफोर्ड कर सकेगा।

अफसरने सोचा -- चलो, इससे इतना तो दिखता है कि राजनेताओंमें अभी भी कुछ अच्छे मूल्य विद्यमान हैं। यहाँ काम करना सरल रहेगा।

30 वर्ष बाद । दूसरा राज्य, दूसरा अफसर। अति वरिष्ठ तथा अनुभवसे समृद्ध। एक विभागका प्रिंंसिपल सेक्रेटरी नियुक्त हुआ।

एक दिन हायकोर्टसे पत्र आया। अमुक अमुक केसमें आपके विभागने अफेडेविट फाइल नहीं किया है। अब अगले 8 दिनोंमें करिये वरना आपसे वैयक्तिक रूपसे रू. 5000 दण्ड वसूल किया जायगा।

अफसरने केस पेपर मँगवाये। एक पीआईएल थी, जिसमें विभागके मंत्रीके भ्रष्टाचारको उजागर करते हुए उसपर वैयक्तिक रूपसे कारवाईकी माँग की गई थी। अफसरने उस कामकी फाइल मँगवाई तो पता चला कि फाइल तो एक सालसे मंत्रीके पास है, लेकिन हाँ, विभागके पास उसकी झेरॉक्स है।

मंत्री तब लखनऊमें पार्टीके लिये इलेक्शन प्रचारमें 8-10 दिनके निकल पड़े थे। उनके पीएसे फाइल माँगी तो लिखित उत्तर मिला - "आपके फाइल इश्यू रजिस्टरसे यह दिखाई पड़ता है कि फाइल मंत्रीजीके पास हो ऐसा कोई ठोस प्रमाण आपके फाइल इश्यू रजिस्टर में नहीं है।" अफसरने फाइल इश्यू रजिस्टर देखा तो वाकई उसमें मंत्रीके पास फाइल भिजवानेकी कोई एण्ट्री नहीं थी लेकिन अंडर सेक्रट शपथसे कह रहा था कि फाइल मंत्रीके पास है और जब दी थी तब मंत्रीके पीएके रोबमें आकर उसने रजिस्टरमें एण्ट्री नहीं करवाई थी। बादमें उसने स्वयं बताया कि अपने बचावके लिये उसने फाइल इश्यू रजिस्टरके अन्तिम पन्नेपर इसे दर्ज करते हुए पीएके हस्ताक्षर ले लिये थे जिसे पीए अब भूल चुका था।

तो फिर अफसरने पीएको बिना छेड़े इस घटनाको भी दर्ज कराते हुए झेरॉक्सके आधारपर एक प्रतिज्ञापत्र हाईकोर्टके लिये बनवाया। उसमें घटनाका विवरण था कि मंत्रीकी शिफारिशपर दो अलग-अलग फील्ड अफसरोंने असहमति दर्शाई थी और विभागीय सेक्रेंटरीने फाइल देखी ही नहीं थी। डिप्टी सेक्रेटरीसे सीधे मंत्रीके पास गई और मंत्रीने फील्ड अफसरकी असहमतिको धता बताकर आखिरकर जो निर्णय लिया था, उसके कारण ठेकेदारका गैर तरीकोंसे ग्यारह करोड़का लाभ हुआ था। वह ठेकेदार भी इस मंत्रीका साथी तथा इसी विभागका इस मंत्रीसे पहले वाला मंत्री था और दोनोंकी मिलीभगत स्पष्ट दीखती थी, इत्यादि।

अब यद्यपि इस पीआईएल में मंत्रीके विरूद्ध वैयक्तिक आरोप थे और हायकोर्टसे आदेश माँगे थे कि मंत्रीके विरुद्ध भ्रष्टाचार केसका एफआईआर दर्ज हो, फिर भी विभागीय सेक्रेटरी यदि कोई प्रतिज्ञापत्र दाखिल कर रहा हो तो नियमकी माँग है कि वह टिप्पणी और प्रतिज्ञापत्र मंत्रीको दिखाकर उसकी सहमति ली जाये। मंत्री उपलब्ध न होनेकी स्थितीमें मुख्यमंत्रीसे सहमति ली जाये।

संयोगसे इस मंत्रीकी मुख्यमंत्रीसे बारबार ठनती थी और मंत्री धमकियाँ देता था कि मैं तो पार्टी के मुखिया का बहुत करीबी हूँ, तो मुख्यमंत्रीको ये करूँगा, वो करूँगा, इत्यादि। मुख्यमंत्री भी इस ताकमें रहते थे कि कैसे इस मंत्रीका घमंड तोड़ा जाय।

तो अफसरने फाइल मुख्य सचिवको दिखाई और दोनों फाईल लेकर मुख्यमंत्रीके पास पहुँचे। मुख्यमंत्रीकी बांछे खिल गईं यह स्पष्ट दीखता था। फिर भी अफसरसे कहा, एकबार लॉ डिपार्टमेंटको दिखाकर उनकी सहमति लेकर मुझे कल सुबह फाईल दीजिये और कलही दोपहर सबसे पहले हायकोर्टमें प्रतिज्ञापत्र दाखिल करा दीजिये वरना हायकोर्टमें दण्ड भी भरना पड़ेगा और स्ट्रिक्चर अर्थात कड़ी फटकार भी आ जायेगी।
अफसरको अपनी मेहनत रंग लाती दिखाई पड़ी। फटाफट लॉ सेक्रेटरीसे भेंट की, सारी बात समझाई, प्रतिज्ञापत्र भी दिखाया जो स्पष्टतः मंत्रीके विरुद्ध तथ्योंको प्रकट कर रहा था। लॉ सचिवने भी हायकोर्टकी समयसीमा और पीआईएल में दर्ज आरोपकी गंभीरता भाँपते हुए सहमति दे दी। अफसरने उसी शाम फाइल मुख्यमंत्रीके पास भेज दी। उनके सचिवसे भी बोल दिया अर्जण्ट है, हायकोर्टका मामला है इत्यादि।

दूसरे दिन फाइल जल्दी ही वापस आ गई। मुख्यमंत्रीने लिखा था "फाइलको नियमानुसार विभागके मंत्रीको दिखाकर हायकोर्टमें प्रतिज्ञापत्र भेजा जाये।"

मंत्री तो लखनऊमें इलेक्शन दौरे पर कहीं अंदरूनी इलाकेमें था जहाँ मोबाइल नेटवर्क भी नहीं था। इस बातका पत्र मंत्रीके पीएसे लेकर अफसरने अपना प्रतिज्ञापत्र हायकोर्टमें दाखिल कर दिया और फाइलको पश्चात्-अवलोकनके लिये मंत्रीके कार्यालय भिजवा दिया।

तीन दिन बाद मंत्री लौटे। इस बीच उस महिनेकी एकतीस तारीख आ चुकी थी जिस दिन मुख्य सचिवको निवृत्त होना था और दूसरे नव नियुक्त मुख्य सचिवको पदभार ग्रहण करना था।

मंत्री आये तो दो बातें स्पष्ट रूपसे घटी। वे मुख्यमंत्रीके जवर्दस्त प्रशंसक बन चुके थे और दोनो गलबइयाँ डाले फोटो खिंचवा रहे थे। दूसरी ओर हायकोर्टमें जो सुनवाई हुई तो हायकोर्टके जजने स्वयं ही मंत्रीपर नाराजी घोषित की थी। अगली सुनवाईमें मंत्रीके विरुद्ध आदेश आयेंगे ऐसा अनुमान था। 

लेकिन वह भी हुआ जो नहीं होना चाहिये था। मंत्री महोदय नये मुख्य सचिवसे उनके कमरेमें मिले और धमकाया कि तबतक नहीं उठूँगा जबतक इस अफसरको किसी नाकारा पोस्टपर भेजनेके आदेशपर तुम्हारे हस्ताक्षर नहीं होते। मुख्य सचिव अब बदल चुके थे। तत्काल आदेश निकालकर मंत्रीके साथ अपनी गुडविल बना ली, यह सोचते हुए कि अफसरका क्या सोचना, उसे बादमें समझा दूँगा। मंत्री और मुख्य सचिव खुशी खुशी घर गये।

ये ईमानदार अफसर - इस विश्वासपर अडिग कि हम अपने जानते कुछ गलत नहीं होने देंगे। काम करते रहे बेचारे इसी विश्वासपर। लेकिन स्मार्टनेसमें उनसे सौ कदम आगे रहनेवाले नेता उनकी अच्छाई और मेहनतको भी अपना मतलब साधनेका साधन बना ही लेता है।

और दो विराधी घटनाएँ उत्तरप्रदेशसे सभीने देखी-पढ़ी हैं। अवैध बालू खननमें दबंग राजनेताओंका विरोध करते हुए दुर्गाशक्ति नागपालने तत्काल ट्रान्सफरसे लेकर छुट्टीपर भेजे जाने जैसी कठिनाइयाँ भी झेलीं। दूसरी ओर ऐसेही राजनेताओंसे मेलजोल रखकर अपनी रोटी सेंकते हुए बी. शशिकला जैसी अफसरने करोड़ोंकी कमाई की।

तो लोगोंके मनमें यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आईएएस अफसर ईमानदार होंगे या बेईमान यह कैसे तय होता है। उनकी परीक्षा लेनेवाली यूपीएससीके पास ऐसे कौनसे निकष होने चाहिये।


कुछ ऐसीही कहानी मेरी भी है जो 1974 के जुलाईमें आरंभ हुई। उसमें आशा-निराशा, यश-अपयश आदि तो थे ही, साथसाथ कईबार राजनेताओंका दबाव, अफसरशाहीमेंभी भाई-भतीजावाद, अकारण ट्रान्सफर, कभी अचानक कर्तव्यपूर्तिका आनन्द, तो कभी प्रशासनतंत्रकी जड़ता और मूढ़ता इत्यादि सारे रंग देखनेको मिले।

जड़ता तो बहुत है, लेकिन साथमें कुछ आशाके चित्र भी हैं। किसी समाजविज्ञानके विद्वानने कहा है कि किसीभी समाजमें अडिग विश्वासपर सही काम करनेवाले 8 से 10 प्रतिशत ही होते हैं। लेकिन उन्हींके बलपर समाज आगे जाता है। समाजको बस ये ध्यान रखना पड़ेगा कि अच्छाईको बढ़ावा मिलता रहे ताकि यह प्रतिशत 8 से कम न हो, वरना समाज बिखर जायेगा। तो आजभी ऐसे अडिग अफसरोंकी संख्या उस 8 प्रतिशतकी लक्ष्मणरेखासे ऊपर देखती हूँ और आशान्वित रहती हूँ कि यह प्रतिशत बढ़ेगा और हमारा देश व समाज उन्नतिकी राहमें तेजीसे आगे बढ़ेगा।
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Monday, October 1, 2018

गर्भनाल लेख २ - लखनऊ स्टेशनसे

लखनऊ स्टेशनसे
लेख २
गर्भनाल एप्रिल २०१९

लखनऊ स्टेशनकी वह दोपहर मेरे मनःपटलपर अमिट भावसे उकेरी हुई है। दिन रहा
होगा ११ जुलाई १९७४। लम्बासा प्लॅटफॉर्म, बेतहाशा भीड, दौडते भागते लोग। उन्हींमेंसे एक
मैं भी। लखनऊ दिल्ली गाडीके आनेका समय हो चला था। कुलीसे मैंने कहा था कि भैया,
जनाना डिब्बेमें बिठा देना । उसके सिरपर एक होल्डॉल, दो सूटकेस, और एक कंधेसे लटका
थैला। मेरे पास भी एक सूटकेस, एक खानपानका थैला और एक पर्स। उसके पास रखे चार
सामानोंंमें मेरे अगले पूरे वर्ष तक मसूरीमें रहनेका इन्तजाम था अर्थात्, कपडे, ओढने-बिछाने,
पुस्तकें, जूते-वूते, गहने-साजश्रृंगार वगैरा सबकुछ ।

गाडियँ आती हैं - भीड उमडती है। कोई मुझे बताता है लखनऊ-दिल्ली गाडी दूसरे
प्लॅटफॉर्मपर आ रही है। भीडके साथ मैं भी दौडती हुई, सीढीयॉ चढती उतरती हुई किसी तरह
उस दूसरे प्लॅटफॉर्मपर पहुँचकर जनाना डिब्बा खोजकर उसमें एक खिडकी पकड लेती हूँ। पीछे
बाकी भीड भी डिब्बेमें घुस रही है। अब मुझे सुध आती है कि कुली किधर है यह तो मैंने देखा
ही नही । अब क्या करूँ – उतरुँ या बैठूँ । उतरनेके लिये रास्ता बनाते बनाते भी देर लगनेवाली
है। बारबार खिडकीसे झाँककर देख रही थी । गाडीका सिग्नल पीला हो गया तो मेरी छटपटाहट
बढने लगी। तभी दूरसे वह आता हुआ दिखा। उन दिनों खिडकीयोंपर बार नही लगे होते थे और
खिडकीसे सिर निकालकर दूर तक देखा जा सकता था। वह दिखा तो जानमें जान आई। वह
भागा भागा चला आ रहा था। खिडकीसे ही उसने सामान थमाया। कहा - उधर भी एक
जनाना डिब्बा है, मैंने आपको कहा था कि मेरे पीछे आओ- लेकिन आप इधर आ गई। वह
अपनी बूढी आयुका पूरा फायदा उठा रहा था । मैंने उसे पैसे दिये – उतने ही जितने तय हुए थे,
और उसने भी जादा नही मॉंगे। गाडी चल पडी।

अगले कई घण्टोंतक मैं ईमानदारी नामक सामाजिक गुणके निषयमें सोचती रही। वह मेरा
सामान लेकर कहीं निकल जाता या गाडीके चलने तक मुझे खोज ही न पाता तो। लेकिन
जबतक समाजमें ईमानदारी है, तबतक मेरी इस प्रकारकी छोटी मोटी भूलोंके लिये क्षमा है।

जब कुछ देर तक समाज परिशीलन हो गया तो पिछले दस दिनोंके घटनाक्रमने मेरे
मनकी बागडोर थामी और मनने वही पन्ने पलटना आरंभ किया।

मई महिनेमें शादी होकर मैं नई नवेली दुल्हन बनकर कलकत्ता आई थी। यूपीएससीकी
मौखिक परीक्षा एप्रिलमें ही हो गई थी और रिझल्टका इन्तजार था । यदि सिलेक्शन हुआ तो
जुलाईमें ट्रेनिंगके लिये मसूरी जाना पडेगा। हमारी शादी तय होते ही मेरे ससुरजीने गुरुवारके
उपवासका व्रत लिया था, कि मेैं चुनी जाऊँ। यह श्रद्धा भी समाजमें बडी ऊर्जा और संबल भरती
है। इधर मेरी मॉंने भी शनिवारके उपवासका व्रत ले रखा था । सबके आशीर्वाद और मेरी
मेहनतका फल, जूनमें पता चला कि मेरा IAS में सिलेक्शन हो गया है। सुदूर स्थित मेरे
जन्मगाँव धरणगाँवके विधायक तथा महाराष्ट्रमें तत्कालीन रेवेन्यूमंत्री श्री मधुकरराव चौधरीने
दरभंगामें मेरे पिताजीको अभिनंदनका तार भेजा था जो उन्होंने आगे कई वर्षोंतक संभालकर
रखा था। ।

अब मुझे फटाफट हजार काम करने थे। मैं पहले दरभंगा आई जहॉं मातापिता भाईबहन
और मेरा काफी सामान था और जहॉं मैंने बचपनके पंद्रह वर्ष गुजारे थे । फिर पटनाके लेडीज
होस्टेलमें भी मेरा सामान पडा था। मगध महिला कॉलेजमें, जहॉं मैं लेक्चरर थी - वहाँ
औपचारिक पत्र देना था कि आगेसे मैं नही आऊँगी। पटना युनिवर्सिटीसे मेरा PHD का
रजिस्ट्रेशन था । उनसे पूर्वसम्मति मिल चुकी थी कि IAS में सिलेक्ट हुई तो NOC देंगे । वह
लेना था । पटना होस्टेलसे सारा सामान दरभंगा ले जाकर नये सिरेसे अगले एक वर्षके ट्रेनिंगके
लिये सामानकी पॅकिंग करनी थी । थोडी बहुत पैसेकी व्यवस्था करनी थी। और ढेर सारे मित्र-
सहेलियॉं-गुरुजन-परिचितोंसे विदाई लेनी थी । दरभंगाके सीएम कॉलेज जाकर सबसे, और
खासकर फिजिक्स डिपार्टमेंटके प्राध्यापकोंसे मिलना था । मेरे श्रेयमें उनके अध्यापन व
प्रोत्साहनका विशेष महत्व था । सीएम कॉलेजसे पढकर IAS में आनेवाली मैं पहली स्टूडेण्ट
थी।

पर जो काम अनिवार्य था और नही हो रहा था, जिसके बिना सारा कुछ धरा रह
जानेवाला था, वह था यूपीएससीका पत्र – जो नही आ रहा था ।

दरभंगामें पोस्टेड एक सीनियर IAS श्री अडिगे मेरे पिताके मित्र थे । मेरे IAS के लिये
उन्होंने पिताजीको कई बार सलाह दी थी । उन्होंने कहा दिल्लीमें यूपीएससीके कार्यालयमें
जाकर वह पत्र लेना होगा, वरना नियत दिनांकको ज्वाईन न करनेपर मुश्किल होगी । सो मेरा
छोटा भाई सतीश दिल्ली गया और फिर तार व टेलीफोनसे उसने खबर भेजी – दीदीको तुरंत
रवाना करो- १४ जुलाईको ज्वाईन करना है । वह ९ जुलाइकी दोपहर थी – समय बिलकुल
नही था । रेलका रास्ता तय हुआ - १० तारीखको दरभंगासे समस्तीपुर, वहाँसे लखनऊमें गाडी
बदलकर दिल्ली और १२ को दिल्लीसे देहरादून रवाना होना।

अगली सुबह पिताजी मुझे समस्तीपुरतक छोडने आये । अकेले रेलयात्राका यह पहला
मौका नही था । दरभंगा-पटना-मुगलसराय-इटारसी-जलगांव-धरणगांव मार्गपर मैंने पहले कई
बार अकेले यात्रा की थी। पिताजीको भी मेरे निभा लेनेकी क्षमतापर विश्वास था । फिर भी कई
प्रकारसे सूचनाएँ देकर मुझे लखनऊकी गाडीमेंं बिठाया । वहाँसे बीसेक घंटेकी यात्रा करके मैं
लखनऊ पहुँची थी । वहीं प्लॅटफॉर्मकी सुविधाओंका उपयोग कर स्नान भी कर लिया था । उन
दिनों हर स्टेशनपर रेल्वेके साफसुथरे प्रतीक्षालय हुआ करते थे जिनमें सामान्यजन भी सुविधा
लेते हुए अपनी जरूरतें निपटा सकते थे । हर बडे स्टेशनपर स्वादिष्ट पूरी-सब्जी, पीनेका शुद्ध
पानी आदि सुविधाएँ होती थीं । परेशानी थी तो बस ढेर सारे सामानके कारण । लेकिन चलो,
अब तो गाडी पूरे वेगसे दिल्लीको जा रही है।

अगले दिन दिल्ली स्टेशनपर सतीश मुझे लिवाने आया था । यूपीएससीसे सारे जरुरी
पत्र तथा कागजात ले लिये थे। उसके स्कूली मित्र धनंजयके बडे भाई जिन्हें हम नारायणभैया
कहते थे, उनके घर पर पहुँचे । वे भी केंद्र सरकारके राजभाषा विभागमें अधिकारी थे । वहाँसे
दरभंगा, कोलकाता व मुंबईमें समाचार भिजवाया कि अबतक सबकुछ ठीकठाक है।

शामको दिल्ली-देहरादून जानेके लिये मसूरी एक्सप्रेसमें बर्थकी रिजर्वेशन कर रखी
थी - वहॉं स्थानापन्न हुई । सतीश जाकर अखबार, पानी, कुछ फल ले आया । अब वह कुछ
कहनेवाला ही था कि अचानक एक भूचालसा हुआ । मेरी ही तरह ढेरसा सामान लिये तीन
महिलाएँ अंदर आईं और मेरे सामनेवाली सीट पर कब्जा किया । उनकी अनवरत बातें चल
रही थीं । अंग्रेजी और तमिलमें यात्राहेतु दी जानेवाली हिदायतोंका सैलाब आ गया । फिर ट्रेनके
चल पडनेकी आशंकासे एक युवतीको छोड दूसरी युवती तथा एक प्रौढ महिला जो निश्चित
उनकी मॉं थी, दोनों उतर गईं। लेकिन हिदायतें चालू रही । किसी तरह उन्हें रोककर
मैंने सहयात्री युवतीसे परिचय पूछा और लो, उसे भी मसूरी जाना था - उसी मसूरी अकादमीमें
 IAS प्रशिक्षणके लिये । सतीशने सबको सुनाते हुए मुझे कहा - हॉं तो दीदी, अब सारी
आवश्यक हिदायतें तुमने सुन ही ली हैं, मेरे कहने लायक कोई अलग बात नही बची ।
सब हँस पडे और ट्रेन रवाना हुई।

रास्तेमें राजलक्ष्मी से बातें होती रही । वह दिल्लीके उच्च-मध्यमवर्गके परिवारसे थी,
फर्राटेदार तमिल, हिंदी व इंगलिश बोलती थी । उसके पिताजीका देहान्त हो चुका था और
माँने ही उसे बडा किया था और IASका सपना भी दिखाया था । हम एकदूसरेसे अपने
परिवार, पढाई, शौक, मित्रमंडली आदिके संबंधसे बातें करते रहे।

अगली सुबह देहरादूनसे मसूरीके लिये टॅक्सी पकडी । राजीका परिचित एक और प्रशिक्षणार्थी
भी मिल गया जो पोस्टल सर्विसके सिलेक्ट हुआ था। मसूरी अकादमी पहुँचकर ज्वाइनिंग रिपोर्ट
दी । अकादमीके लोगोंने कुछ और भी कागजोंपर हस्ताक्षर करवाये। उनमें किसीपर एक
छोटीसी तनख्वाहका विवरण था । फिर राजीने समझाया कि इस बेसिक सॅलरीमें डीए आदि
अन्य अलाउंस मिलाकर रकम बडी हो जाती है । अच्छा लगा कि कॉलेजमें फिजिक्सके
लेक्चररकी अपेक्षा यह तनख्वाह थोडी ज्यादा थी । लेकिन यह जानकारी मुझे नही, पर राजीको
है, यह क्योंकर ? उसने कहा कि बडे शहरोंमें ऐसी जानकारी सबको मिलता रहती है - आगे भी
कोई व्यावहारिक मुद्दा हो तो मुझसे सीख लिया करना । यह सरल था क्योंकि संयोगवश मुझे
और राजीको लेडीज होस्टेलमें एक ही कमरा अलॉट हुआ था । मैंने फिर एकबार समाजकी
भलमानसाहतका आभार माना। इस प्रकार एक वर्षके मसूरी ट्रेनिंगकी पूर्वपीठिका तैयार हो
गई।
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