मराठीसाठी वेळ काढा

मराठीसाठी वेळ काढा

मराठीत टंकनासाठी इन्स्क्रिप्ट की-बोर्ड शिका -- तो शाळेतल्या पहिलीच्या पहिल्या धड्याइतकाच (म्हणजे अआइई, कखगघचछजझ....या पद्धतीचा ) सोपा आहे. मग तुमच्या घरी कामाला येणारे, शाळेत आठवीच्या पुढे न जाउ शकलेले सर्व, इंग्लिशशिवायच तुमच्याकडून पाच मिनिटांत संगणक-टंकन शिकतील. त्यांचे आशिर्वाद मिळवा.

Friday, October 4, 2019

गर्भनाल -९ नवम्बर २०१९ पुणेमें प्रांतसाहबीका पहला चरण


पुणेमें प्रांतसाहबीका पहला चरण

वह तिथी १० अगस्त १९७६ थी जिस दिन मैंने पुणे जिलेमें हवेली असिस्टंट क्लेक्टरका पद संभाला, उसे मैं प्रांतसाहबीका दूसरा चरण कहती हूँ। इससे पहले एक वर्षका प्रशिक्षण कार्यकाल भी पुणेमें ही पूरा किया था। वह एक और असिस्टंट कलेक्टरीके दो वर्ष, ये भारतीय प्रशासनिक सेवाके सबसे कनिष्ठ श्रेणीके वर्ष होते हैं और जिम्मेदार अफसर बनने हेतु अच्छे स्कूलका काम करते हैं। इस पोस्टका नाम भी जबरदस्त है- असिस्टंट कलेक्टर या सब-डिविजनल ऑफिसर और साथमें सब-डिविजनल मॅजिस्ट्रेट भी। लेकिन महाराष्ट्रके ग्रामीण इलाकोंमें 'प्रांतसाहेब' अधिक परिचित संबोधन है। एकेक जिलेमें तीन या चार प्रांतसाहेब होते हैं। उनका काम और अधिकार कक्षा कलेक्टरके कामसे काफी अलग, काफी सीमित क्षेत्रोंमें लेकिन वाकईमें धरातलसे जुडे होते हैं।

ब्रिटिश राजके दिनोंसे ही पटवारी, मंडल अधिकारी, तहसिलदार, सब-डिविजनल ऑफिसर, कलेक्टर और कमिश्नर जैसी अधिकारियोंकी एक सुदृढ शृंखला बनाकर उनके मार्फत जमीनके प्रशासनसे संबंधित सारे कार्य निपटाये जाते थे। जमीनी व्यवहारोंका लेखा जोखा ब्रिटिशोंसे पहले भी मुगलोंके, निजामके, शिवाजीके और पेशवेकालीन महाराष्ट्रमें रख्खा जाता था। इसके लिए जोशी, कुलकर्णी, सरदेशमुख जैसे पद भी नियत थे। भूमिका कर उन्हींके मार्फत वसूला जाता और सरकारी खजानेमें जमा होता। बंगाल-बिहार आदिमें कर वसूलने के लिए जमींदार और चौधारियोंकी प्रथा थी। लेकिन कोतवाली अधिकार उनके पास नही थे। ब्रिटिश राजने जमीनके कामोंके साथ जिला प्रशासनसे जुड़े सभी कामोंको कलेक्टर संज्ञक एक ही पोस्टमें एकत्रित कर दिया। चाहे जमीनकी नाप-जोत करनी हो, चाहे खसरा-खतौनीके पट्टे बनाने हों, चाहे भूमिकर वसूलना हो, चाहे वसूली गई रकमका हिसाब रखना हो, कभी सूखा पड़ जाए तो भूमिकर या लगान माफ करनी हो, या नई जमीनको कृषि-उपयोगमें लाने हेतु उसकी नाप-जोत कर लगान तय करना हो, चाहे उत्तराधिकार तय करना हो, जमीनसे उत्पन्न झगड़े बखेडे निपटाने हों या कभी जमीनके कारण अपराध, दंगे हो रहे हों और उन्हे सख्तीसे रोकना हो- सारे कार्य उस एक अधिकारीकी - कलेक्टरकी कार्य कक्षामें थे जिसे सरकारी खजानेको भरा पूरा रखनेका उत्तरदायित्व सौंपा गया था। उन दिनों भूमिकर और जंगल संपदा ही सरकारी खजानेकी आयका प्रमुख साधन थे। अतः जिलास्तरपर कलेक्टर ही ब्रिटिश राजका प्रतिनिधि और सर्वेसर्वा होता था। हर वर्ष होने वाली फसलका हिसाब वही रखता था। जिला ट्रेझरी उसीके अधीन थी। दो विश्वयुद्धोंके कारण जब राशन व्यवस्था लागू करी गई तो उसका मुखिया भी कलेक्टर ही था। इसके अलावा हर जिलेका हर वर्षका गजेटियर बनानेका काम उसीका होता था। जो कलेक्टर अच्छा लिख सकते थे उन्हें प्रशासनके उपयुक्त अच्छी पुस्तकें लिखनेके लिए प्रोत्साहित किया जाता था। दंगे हुए, झगड़े हुए तो उनका सीधा असर लगान वसूली और सरकारी तिजोरी पर पड़ता था। अतः दंगेकी रोकथाम सबसे महत्वपूर्ण मानी जाती। इसी कारण जिला पुलिस अधीक्षक कलेक्टरके अधीन ही होता था और क्रिमिनल प्रोसिजर कोडके कई सेक्शन जिला मॅजिस्ट्रेटकी कचहरीमें ही चलाए जाते।

इन सब कामोंमें कलेक्टरका बाँया और दहिना- दोनों हाथ होते थे सब डिविजनल ऑफिसर अर्थात प्रांतसाहेब ! पहले दौरमें कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक गोरे अफसर हुआ करते थे। लेकिन अधिकांश प्रांतसाहेब देशीय लोग होते। धीरे धीरे जब आयसीएसमें हिन्दुस्तानी लोग आने लगे तो प्रांतसाहबोंको भी कलेक्टरका प्रमोशन दिया जाने लगा। स्वतंत्रताके पश्चात आईएएस या भाप्रसे बनी। उसके अफसरोंको भी पहले दो वर्ष प्रांतसाहबीमें लगानेका सूत्र कायम रहा। कलेक्टर और प्रांतसाहबकी जो प्रतिमा अंग्रेजोंके शासनमें जन-मानसमें बैठी हुई थी, वह भी अधिकतर कायम ही रही। हालाँकि उनके अधिकार और कामोंमें काफी अंतर भी पड़ा। फिर भी ग्रामीण प्रशासनमें उनकी भूमिका आज भी करीब करीब वही है, और उनका रूतबा भी।

प्रांतसाहबकी पहली पोस्टिंगके कारण नए भाप्रसे अफसरको ग्रामीण अंचलोंमें भरपूर काम करना पड़ता है, और वही नींव है इस बातको सीखनेकी कि प्रशासनका असर छोटेसे छोटे आदमीतक किस रूपमें पहुँचता है।

मेरी पूरी पढाई हुई थी बिहारमें। केवल गर्मीकी छुट्टियोंमें महाराष्ट्रके अपने छोटेसे गाँव धरणगाँवमें जाते थे। मेरा महाराष्ट्र-परिचय बस उतना ही था। मेरी आईएएसकी परीक्षाएँ चल रही थीं कि शादी तय हुई। इधर रिझल्ट आया, उधर शादी। फिर प्रकाशकी पोस्टिंग थी कलकत्ता और मेरी ट्रेनिंग थी मसूरीमें - वहाँ आठ महीनोंके बाद ऑर्डर आई कि मुझे महाराष्ट्र काडर अलॉट किया गया है। इसका अर्थ हुआ कि मेरी अगली सारी नौकरी महाराष्ट्रमें होगी और कभी कभार दिल्लीमें। प्रकाशको ट्रान्सफरके लिए दो पर्याय थे- पुणे या मुंबई। हमने पुणेमें बस जानेका निर्णय लिया।

मसूरी ट्रेनिंगके बाद मुझे अगले एक वर्षके जिला ट्रेनिंगके लिए भी औरंगाबादकी पोस्टिंग बदलकर पुणेमें मिल गई थी। इस प्रकार ट्रेनिंगके लिये मैं १९७५ में ही पुणे गई। मेरी समस्या जानकर जिस तत्परतासे श्री कपूरने सुझाव दिया व श्री साठेने मेरी पोस्टिंग बदल दी, ह वर्क एफिशियंसी मेरेलिए हमेशा रोल मॉडेलके रूपमें रही।

उस जमानेमें सभी सिनियर अधिकारी अपने ज्यूनियर्सके साथ बहुत अपनापन रखते थे। आजके अफसरोंके बीच यह अपनापन लुप्तसा होता जा रहा है। ध्यान देनेकी बात है कि पूरे भारतका प्रशासन चलानेके लिए ब्रिटिशोंके पास केवल दो तीन हजार आईसीएस अफसर थे। आज भी केवल पांच हजारके करीब हैं। यदि उनमें अपनापन नही हुआ तो प्रशासन भरभराकर टूट सकता है। इसीलिए ब्रिटिशोंके दिनोंमें हर सिनियर अफसरकी जाँच इस बातपर होती कि वह अपने ज्यूनियर्सके लिए कितना अपनापन दिखाते हैं, उनकी शिक्षा दीक्षामें कितनी जिम्मेदारी निभाते हैं। कोई सिनियर ऐसा नही करे तो उसके सिनियर्स उसका काऊन्सेलिंग करते थे। इस बातसे हमें कुछ सीखना चाहिये।

इस प्रकार मेरे प्रशिक्षणका एक वर्ष और पोस्टिंगके दो वर्ष पुणेमें बीते और मेरा रूतबा रहा प्रांतसाहबका । बिहारकी तुलनामें और धरणगाँवकी तुलनामें भी पुणेमें और सरकारी नौकरीमें सब कुछ अलग ही था।

महाराष्ट्रके भूगोलमें उत्तरसे दक्षिण सह्याद्रिका पठार और घाटियाँ हैं। घाटमाथे पर उत्तरसे दक्षिण क्रममें पडने वाले जिले हैं नासिक, नगर, पुणे, सातारा, सांगली, कोल्हापुर। कोल्हापुर आते आते पठारकी ऊँचाई समाप्त हो जाती है। उससे दक्षिण बेलगांव तो बिल्कुल तलछटीमें है। सह्याद्रिके पश्चिममें कोंकण प्रदेश है। उधरसे सहयाद्रिको देखो तो वह एक दुर्गम, आकाशगामी दीवारकी तरह दीखता है। दीवारसे नीचे बसा कोंकण, बमुश्किल बीस'तीस किलोमीटर चौड़ाईका है, और फिर तत्काल समुद्र। लेकिन घाटमाथेके इस ओर अर्थात पूर्वी इलाकेका दृश्य बिल्कुल अलग है। यहाँ पश्चिमसे पूर्व पहाड़की ऊँचाई धीरे धीरे कम होती है। घाटमाथेकी नदियोंका पानी पूर्वकी तरफ बहता है। सो सह्याद्रिके पूरबके नगर, पुणे, सातारा, सांगली, कोल्हापुर जिले पश्चिम महाराष्ट्र कहलाते हैं। यह सारा प्रदेश पानीसे भरपूर, बारहों महीने हरा भरा, सालमें दो या तीन फसलों वाला है। सम्पन्न। यही वर्णन पुणेके उन सात तहसिलोंमें लागू होता है जो पूरबकी दिशामें पहाड़से थोड़ा नीचे उतर चुके हैं। लेकिन घाटमाथेके सात तहसिल तो मावली थे। दुर्गम काले पहाड़ोंमें बसे, जहाँ वर्षमें आंबेमोहोर नामक सुगंधी धानकी एक फसलके सिवा कोई फसल नही उगती थी। रास्ते बनाना दूभर। हाँ, घासके कारण पशुधन अच्छा होता है। इन तहसिलोंमें आदिवासी संख्या बडी मात्रामें है।

पश्चिम महाराष्ट्रके पूरबमें मराठवाडा, उत्तरमें खानदेश, और उससे उत्तरमें विदर्भ क्षेत्र हैं। हर क्षेत्रकी मराठी एक दूसरेसे ऐसी अलग है कि किसीकी बोली सुनते ही ज्ञात हो जाता है कि उसका क्षेत्र कौनसा है। मराठीके एक मूर्धन्य साहित्यकार दांडेकरजी अपने उपन्यासमें जिस क्षेत्रकी पृष्ठभूमि हो, उसी इलाकेकी मराठीका प्रयोग करते थे। उस उस टोनमें मराठीको सुनना मुझे बहुत भाता है।

मैं औरंगाबादसे पुणे आई तब श्री सुब्रहमण्यम् कलेक्टर थे। औरंगाबादकी तुलनामें पुणे बहुत बडा और राजनीति चलानेवाला शहर था। यहाँ मंत्रियोंका तांता लगा रहता था, सो भागवतजीकी तुलनामें श्री सुब्रह्मण्यम् कम ही समय दे पाते थे। वे ओशोको बहुत पसंद करते थे और अक्सर उनके साथ टूर जानेपर वे ओशोकी सीखोंको सुनाते थे। मैं स्वयं ओशोको अधिक पसंद नही करती लेकिन उनके कारण ओशोके कई विचारोंसे परिचय हो गया।

एक बार मैं उनके दफ्तरमें बैठी थी। वे डाक देख रहे थे। एक अर्जी निकालकर मुझे पढनेके लिए दी। फिर पूछा - इस अर्जीकी सबसे महत्वपूर्ण बात क्या है, जो याद रखनी चाहिये? मैंने कहा - इस प्रार्थीकी कोई जमीन सरकारने अधिग्रहणकी है और उचित मुआवजा नही दिया है, यही मैं याद रखूँगी। वे हंसकर बोले - नो, नो। यह याद रखा करो कि इस आदमीका नाम क्या था, संभव हुआ तो गांव भी। देखो, हमारे लोग इस अर्जीको चार महीने वैसे ही रख लेंगे, कुछ नही करेंगे। यह आदमी मुझसे मिलने आयगा। जब मैं कहूँगा, हाँ हाँ तुम्हारा नाम, गांव यह है, मैंने तुम्हारी अर्जी देखी है, तो उसे तसल्ली होगी कि चलो काम नही भी हुआ तो क्या? मेरा नाम तो साहबने याद रखा हुआ है।

मैं अचकचा गई। मेरे लिये यह महा कठिन बात है कि मैं किसीका चेहरा या नाम याद रख सकूँ। उनकी बातकी प्रचीति भी मैने देखी। दौरेपर कई लोग उनसे मिलने आते तब मैं देखती थी कि उन्हें याद रहता था कि कौन पहले भी उनसे मिल चुका है और उनके बतानेपर तत्काल उस व्यक्तिका चेहरा खिल जाता है। यह कला मुझे आजतक नही आई। लेकिन एक संतोष यह है कि मुझे कामके डिटेल्स याद रह जाते हैं। अतः जबतक कोई आदमी कहता रहे कि मेरा नाम अमुक, गांव अमुक, तबतक उसे मेरे चेहरेपर एक प्रश्नचिह्न लगा दिखेगा। लेकिन जब वह कहेगा - मेरे पड़ोसीसे जमीनकी बाउंड्रीके झगड़ेकी बाबत फाइल चल रही है, तो मुझे याद आयेगा, हाँ और इसने बांधपर लगे दो खैरके पेड़ोंकी भी तकरार लिखी थी। तब जाकर उसे तसल्ली होती है कि अच्छा, इन्हें काम तो याद है।

मेरी इस याददाश्तका फायदा मैं ऐसे उठाती हूँ कि मैं हेडक्लर्कसे कह सकती हूँ - देखो, बाउंड्रीपर लगे पेड़ोंके झगडेकी बाबत सात अर्जियाँ आ चुकी हैं, जरा सबको एक साथ ले आओ और देखो कि क्या एक ही फार्मूला लग सकता है, यदि हाँ तो वही जनरल सकूर्यलर बनाकर सब पटवारियोंको भेज देंगे। फिर हमारे पास अर्जियाँ कम हो जाएंगी।

जिला प्रशासन मुख्यतः गाँवों और खेतीसे संबंधित होता है। ग्रामीण जमीन, खसरा खतौना आदिका हिसाब पटवारी रखता है। लगान वसूलीकर तहसील ट्रेझरीमें जमा करना उसीका काम है। गाँवके और भी कई तरहके हिसाब। यह सारे समुचित ढंगसे लिखे जायें और उनका इन्स्पेक्शन एवं ऑडिट भी ठीक ढंगसे हो, इसके लिये १९१५ में अँडरसन नामक एक अंगरेज आयसीएस अधिकारीने रेवेन्यू मॅन्यूअल लिखा जो बॉम्बे प्रेसिडेन्सीमें अर्थात्‌ महाराष्ट्र, गुजरात, सिंध, कराची और कर्नाटकमें लागू हुआ। यहाँकी रेवेन्यू सिस्टिम पूरे भारतमें सबसे अच्छी मानी जाती है। आज सौ वर्ष होनेके बाद भी उस व्हिलेज अकाऊंट-सिस्टिममें कोई परिवर्तन करनेकी आवश्यकता नही पड़ी। महाराष्ट्र केडरके प्रोबेशनर जब मसूरीके एक वर्ष ट्रेनिंगके बाद अपने राज्यमें एक वर्ष ट्रेनिंगके लिए आते हैं तो उन्हें इस मैन्यूअलसे सामना करना पड़ता है। इसलिये, कि वर्षके अंतमें जो परीक्षा होनी है, उसके बाकी सात पेपर्सके उत्तर तो पुस्तक देखकर लिखनेका रिवाज है लेकिन अँडरसन मॅन्यूअलका पेपर बगैर पुस्तकी सहायतासे लिखना पड़ता है। कई वर्षों बाद मैं पुणेमें सेटलमेंट कमिशनर बनी तो मेरे कार्यालयका एक कमरा दिखाते हुए जानकारोंने बताया कि वहाँ बैठकर ऍण्डरसनने अपना रेवेन्यू मॅन्यूअल लिखा था।

मॅन्यूअलमें बताया गया है कि पटवारी गाँवके हिसाब कैसे लिखे और कलेक्टर, प्रांतसाहेब या तहसिलदार उनका ए ऑडिट, अर्थात विस्तृत ऑडिट और बी ऑडिट अर्थात्‌ समरी ऑडिट कैसे करें। उन दिनों प्रांतसाहबको वर्षमें बीस ए ऑडिट पूरे करने होते थे। जिस प्रकार कोई अच्छा चार्टर्ड अकाऊन्टेन्ट किसी कम्पनीका ऑडिट कर उस कंपनीके स्वास्थ्य और व्यवहारकी ईमानदारीको जान लेता है उसी प्रकार अच्छा अफसर ए ऑडिटके माध्यमसे गाँवकी हाल चाल और पटवारीकी नियतको जान लेना है। एक अच्छा ए ऑडिट करनेके लिए छः घंटे और बी ऑडिटके लिए एक घंटा लग जाता है। उतना भी समय न हो तो कमसे कम विलेज फॉर्म नंबर छः, सात, बारह, एक, आठ और नौ तो देख ही ले। कमसे कम छः नंबरपर हस्ताक्षर तो कर ही दे ताकि पटवारी उसपर बॅकडेटेड एन्ट्री न कर सके आदि कई गुर हैं। मेरे प्रोबेशन कालमें सुबह एक बार कलेक्टरको अभिवादन कर लेनेके बाद मेरा समय अक्सर हवेली प्रांत अधिकारीके ऑफिसमें गुजरता था जो उसी कम्पाऊंडमें था। यह प्रांत अधिकारी खानोलकर अत्यन्त निष्णात थे और कई गुर मैंने यहीं सीखे। मैं अपना ए ऑडिट भी तीन घंटोंमें समाप्त कर पाती थी। कहना नहीं होगा कि जब अँडरसन मॅन्यूअलकी परीक्षा हुई तो उस पेपरमें मुझे डिस्टिंक्शनके मार्क आये। एक वर्षके बाद खानोलकरका तबादला हुआ पिंपरी चिंचवड नगर विकास प्राधिकारीके पद पर और मैं हवेली प्रांत अधिकारी नियुक्त हुई। पुणे शहरके बाहर जितने भी नए उद्योग लग रहे थे वे सब पिंपरी चिंचवड प्राधिकरणके गाँवोंमें लग रहे थे। इसीसे यहाँ नई नगर पालिका बनानेकी आवश्यकता आन पड़ी थी। उसीको मूर्त रूप देनेके लिए प्राधिकारीकी नियुक्ति हुई। वैसे यह हिस्सा मेरे ही कार्यकक्षामें पड़ता था। सो मेरी और खानोलकरकी मित्रता कायम रही।

इन्स्पेक्शनके समय वे बताते थे - सोचो कि इस इन्स्पेक्शनसे मैं क्या साध्य करना चाहता हूँ और बादमें अपनेसे पूछो- क्या मैंने वह साध्य किया। दूसरे अधिकारी गाँवके राशन दुकानका इन्स्पेक्शन करेंगे तो उसके रजिस्टरके कुछ पन्ने देख लेंगे, फिर कुछ खरीददारोंसे माँगकर रसीद देखेंगे और लिख देंगे अपने रिपोर्ट में-- दस रसीदें देखीं, दुकानदारका रजिस्टर देखा- बस। लेकिन खानोलकर अपनी रिपोर्टमें रसीद नंबर दर्ज करते थे और रजिस्टरके वह पन्ने भी जाँचते जिनमें इन्हीं रसीदोंकी काऊंटरफॉईल होती थी। साध्य क्या था- कि यदि दुकानदार बेईमानी कर रहा हो तो उसे पकड़ा जा सके। इसीलिए रसीदोंका मिलान रजिस्टरके संबंधित पन्नेसे होना चाहिए- इस बातका वे खूब ध्यान रखते थे।

फिर भी खानोलकर प्रौढ और कन्वेन्शनल अधिकारी थे जबकि खेड प्रांतमें गोपाल नामक मुझसे केवल दो वर्ष सीनीयर आईएएस अधिकारी प्रांतसाहेब थे। उनसे कुछ अलग बातें सीखीं।

एक बार कलेक्टरके साथ सभी तहसिलदार और प्रांत अधिकारियोंकी मीटींग चल रही थी कि मुंबईसे संदेशा आया कि खुद मिनिस्टर तथा रेवेन्यू सेक्रेटरी पुणे जिलेके कार्योंका जायजा लेनेके लिये अगले दिन मीटींग करेंगे। बस, कलेक्टरने अपना अजेंडा रोक दिया और अगले दिनकी तैयारीके लिए सबको सूचनाएँ दीं। मैं, गोपाल, खानोलकर सभी हवेली प्रांतके दफ्तरमें आए। गोपालने हमारे हेड क्लर्कसे कहा- मेरे खेडके ऑफिसमें फोन मिलाओ। फिर करीब पंद्रह मिनटतक अपने हेड क्लर्कको सूचना देते रहे कि कलकी मीटींगके लिये इस मुद्देका रिपोर्ट चाहिये, वह चार्ट चाहिए, उस मुद्देको ऐसे लिखना है इत्यादि, अब आप लोग दिन रात बैठकर रिपोर्ट बनाइए और सुबह बस पकडकर पुणे पहुँचिए, मैं यहीं रूक रहा हूँ। जब गोपालका फोन खतम हुआ तो खानोलकरने अपने हेड क्लर्कसे कहा - यह जो सारा अभी सुना, वही तुम्हें भी करना है - मैं अब अलगसे कोई सूचना नही देता। हेड क्लर्क भी पुराना खिलाड़ी था - उसने अपनी नोटबुक हमारे सामने रखी। मैंने आश्चर्यसे देखा - जब गोपाल अपने हेड क्लर्कको सूचना दे रहे थे, तब ये सज्जन भी उसे लिखते जा रहे थे।
इस घटनासे मैंने सीखा कि कहीं भी रहनेके बावजूद अपने ऑफिसपर रिमोट कण्ट्रोल कैसे किया जाता है।

एक बार कलेक्टर सुब्रह्मण्यम् खेड प्रांतके दौरेपर जाने लगे तो मुझे भी साथ ले गए - जानेके लिए उनकी कार थी। लेकिन जिन गाँवोंमे उन्हें इन्स्पेक्शन करना था, वहाँ कार नही चल सकती थी। जीपका ही सहारा था। उन दिनों सरकारी कार्यालयोंमें गाडियाँ नहीके बराबर होती थी। खेड जैसे दूरस्थ गाँवमें केवल एक प्रांत अधिकारीकी जीप अर्थात गोपालकी। हमारे दलके साथ जानेवालोंमे पटवारी, मंडल अधिकारी, कलेक्टरका सिपाही इत्यादि भी मौजूद थे।

हम लोग जीपकी तरफ बढने लगे तो गोपालने कहा- मैं ड्राइव करूँगा, कलेक्टर साहब बीचमें और लीना, आप किनारेपर बैठना। बाकी सब लोग पीछे बैठेंगे। बादमें धीरेसे मुझसे कहा- कभी भी सिनियर्सके साथ दौरा करना पडे तो खुद ड्राइविंग करना, वरना पीछे बैठना पड सकता है। फिर सिपाही, पटवारियोंपर रोब नही रहता। लेकिन सिनियर्सको कैसे विश्वास हो कि आप अच्छा ड्राइविंग कर लेती हो? इसलिये बाकी समय भी खुद ही ड्राइविंग किया करो ताकि कलेक्टरके कानमें यह बात जाती रहे कि आपको ड्राइविंग आती है।

बादमें जब मैं प्रांत साहब बनी तब सुब्रहमण्यम बदल चुके थे और नए कलेक्टर अफझुलपुरकर आ गए थे। मुझे हंसी आती है कि एक बार मेरे विभागमें अफझुलपुरकर इन्स्पेक्शन करने आए और मैं जीपमें ड्राइविंग सीटपर बैठने लगी तो उन्होंने रोक दिया। कहा - मैं ड्राइव करूँगा, तुम उधर दूसरी तरफ बैठो। बादमें कहने लगे - मैंने सुना है कि तुम भी अच्छा ड्राइव कर लेती हो, लकिन मुझे भी आज कई वर्षोंबाद जीप ड्राइविंगका मौका मिला है। इस प्रकार कलेक्टरपर अपनी ड्राइविंगकी धाक जमानेका मेरा मौका चूक गया।

मेरे प्रोबेशनर कालमें मेरे लिये अत्यंत आदर्शवत् एक घटना हुई। तब देशमें एनएसए (नॅशनल सिक्यूरिटी ऍक्ट) लागू था। लेकिन श्री जयप्रकाश नारायणके नेतृत्वमें आंदोलन भी जोर पकड रहा था। श्री अटलबिहारी बाजपेयी पुणेके पास तलेगाँवमें आनेवाले थे। अपने ओजस्वी भाषणोंके कारण वे स्टार वक्ता थे। मैं पहले भी बिहारमें उनके भाषण सुन चुकी थी। संयोग कि खानोलकर छुट्टीपर थे तो कलेक्टरने मुझसे कहा कि तलेगाँव पीएसआयको साथ ले जाओ और भाषण सुन आओ। मैंने इसके राजनीतिक पहलूपर गौर किये बिना भाषण सुना और एक अच्छा भाषण सुननेका आनन्द लेकर घर आ गई।

अगले दिन ऑफिस आई तो पाया कि मुंबईसे दबाव बन रहा था कि भाषणमें उल्लेखित कुछ अंशोंके आधार पर अटलजीको गिरफ्तार किया जाय और उन पर एनएसए (नॅशनल सिक्यूरिटी ऍक्ट) लगाया जाय। सामान्यतः पुलिस किसीको कैद करती है तो चौबीस घंटेमें उसे न्यायालयमें जजके सम्मुख ले जाना पुलिसके लिये अनिवार्य है। लेकिन एनएसएमें यह समयसीमा छह महीनेकी थी। इंटरप्रिटेशनका पूरा हक कलेक्टरको सौंपा हुआ था। लेकिन एक्टमें यह निर्देश था कि कलेक्टर अपनी विवेकबुद्धिका उसी प्रकार प्रयोग करे जैसे कोई सुयोग्य जज करता है। साथ ही कलेक्टरका निर्णय ही अंतिम था। उस निर्णयमें सरकारके वरिष्ठ अधिकारियोंकी कोई दखल संभव नही थी।

उस एक दिनमें दसियों बार कलेक्टरके लिये मुंबईसे फोन व दबाव आते रहे। तीन बार कलेक्टर और जिला-पुलिस-अधीक्षक चर्चाके लिये बैठे। प्रोबेशनर होनेके नाते मुझे भी विशेष अनुमति थी वहाँ बैठनेकी। लेकिन एक और भी कारण था। कलेक्टर सुब्रह्मण्यम् और पुलिस अधीक्षक सिंगारवेलू दोनों ही दक्षिण भारतीय थे। मराठी तो बोल समझ लेते थे लेकिन अटलजीवाली हिंदी उनके लिये क्लिष्ट थी। उन दिनों भाषण रिकार्ड करनेकी कोई सुविधा नही होती थी। किसी पुलिस कॉन्सटेबलकी ही डयूटी लगती थी कि वह भाषणको जल्दी जल्दी लिखता रहे। लिखनेवाला कॉन्सटेबल मराठी - जितनी हिंदी उसके पल्ले पडी उतनी ही उसने लिखी। उसकी हैंडराइटिंग भी मराठी स्टाइलकी थी। लेकिन कलेक्टरके लिये वही डॉक्यूमेंटरी एविडंस था न कि समाचारपत्रोंमें वर्णित बातें।

ब्रिटीश कालसे ही कलेक्टरको हर महीने एक सिक्रेट कोड भरा सील्ड लिफाफा भेजा जाता है। उस महीनेमें आने वाले गुप्त संदेश इस कोडमें लिखित कुंजीकी मददसे पढे जा सकते हैं। जरूरत न पडनेपर कलेक्टर स्वयं हर महीने उस सील्ड लिफाफेको जला देता है और सरकारके पास रिपोर्ट करता है। नया कोड भी समयानुसार पहुँच जाता है। यह सब मैंने तब सीखा और आगे कलेक्टर बननेपर निभाया भी।

तो टेलीप्रिंटरपर तीन बार गुप्त संदेश आये कि भाषणके अमुक अंशको अमुक तरीकेसे इंटरप्रेट किया जा सकता है, और उस आधारपर अटलजीकी गिरफ्तारी सही ठहराई जा सकती है। तीनों बार अलग अलग वाक्यांशोंका हवाला था। हर बार कलेक्टर और अधीक्षककी बात लम्बी चली। उस कॉन्सटेबलके लिखकर लाये भाषणका हर शब्द बार बार पढा गया, हर शब्द पर चर्चा हुई। मुझसे भी अत्यल्पतामें अर्थ पूछ लेते थे, लेकिन अन्तिमतः निर्णयका उत्तरदायित्व उनका ही है यह भान उन्हें था। मैंने हिंदी भाषण सुना था और अपनी हिंदीकी पकडके आधारपर कह सकती थी कि अटलजीने एनएसएका भान रखते हुए ओजस्वी, फिर भी संतुलित भाषण दिया था। परन्तु अब तो यह गौण था कि वाकई भाषण क्या था - जो ट्रान्सस्क्रिप्ट लिखित रूपमें सामने है, उसीको फाईलमें लगना था, यह भेद भी मैंने उस दिन सीखा।

तो कुल मिलाकर दोनोंकी तीन बार मीटींग हुई औऱ हर बार मुझे बुलाया गया। भाषणका हर वाक्य कई कई बार पढा गया, और दोनों हर बार इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि 'विवेकबुद्धि' से मीनमेख करनेके पश्चात् वह भाषण एनएसए लगानेके लिये पर्याप्त नही था। मेरे लिए यह घटना एक अच्छा पाठ था कि कैसे एक विवेकशील अधिकारी अपनी सच्चाईपर अडिग रह सकता है। उन दिनों शेषनके कार्यकाल जैसा निर्वाचन आयोग नही था। कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक दोनोंके लिये कभी भी ट्रान्सफर ऑर्डर आ सकता था। फिर भी दोनों दबावमें नही झुके।

इस घटनाको याद करती हूँ तो वह कमरा, वह ट्रान्सस्क्रिप्ट, वह गुप्त कोडवाले लिफाफे, वह बालकी खाल निकालकर किया गया प्रत्येक शब्दका परीक्षण, पिछली शाम भाषण देता हुआ अटलजीका चेहरा आँखोंमें कौंध जाता है। और अफसरीके उत्तरदायित्वके सम्मानमें मैं स्वयंके लिये भी गौरवकी अनुभूति करती हूँ।
---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------













No comments:

Post a Comment