लेखांक ४ -- देवदासी
समस्यासे मेरा
आमना–सामना
गर्भनाल जून २०१९
मसुरी
प्रशिक्षणके
क्रमसे हटकर
मैं आज
वह घटना
याद कर
रहीं हूँ
जब देवदासी
समस्यासे मेरा
आमना–सामना
हुआ। यह
घटना 1984
की
है,
महाराष्ट्रके
सांगली जिलेकी।
स्कूल
कॉलेजके दिनोंमें
आचार्य चतुरसेन
शास्त्रीका
उपन्यास पढा
था -
जय
सोमनाथ। उसमें
देवदासी प्रथाका
थोडासा वर्णन
था। जय
सोमनाथ हो
या वैशालीकी
नगरवधू हो
या चित्रलेखा
हो,
ये
सारे उपन्यास
मध्यकालीन
पृष्ठभूमिपर
आधारित हैं
जब शायद
देवदास व
देवदासीकी प्रथा
पनप रही
होगी। देवदासता
अर्थात देवताके
मंदिरमें नृत्य,
गायन,
वादन
आदि कलाओं
द्वारा देवताको
रिझाना। क्या
स्त्री और
क्या पुरूष,
हर
कलाकारके लिये
अपनी कलाको
निखारनेका और
तौलनेका माध्यम
मंदिर ही
होते थे।
उसीमें देवताके
मंदिरकी साफसफाईका
काम भी
शायद शामिल
था। मध्यकालमें
हमारे देशके
मंदिर ही
खबरोंकी लेनदेनके
केंद्र थे।
राजाओंकी रणनीतियाँ
भी शायद
मंदिरके देवताकी
साक्ष्यमें
बनती थी।
वहाँ कार्यरत
देवदासियोंकी
भी कोई
भूमिका रहती
होगी।
जो
भी हो,
लेकिन
बीसवीं सदिके
आते आते
इस प्रथाका
रुप यों
हो गया
कि प्रायः
गरीब परिवारोंकी
बच्चियाँ –
अधिकतर पिछडे
वर्गकी बच्चियाँ
मंदिरमें लाकर
पूरे विधि
– विधानके
साथ मंदिरमें
समर्पित कर
दी जाती
थीं। यह
चलन अधिकतर
कर्नाटक,
आंध्र,
गोवा,
उत्तरी
तमिळनाडु और
दक्षिण महाराष्ट्रमें
था। जिन
मंदिरोंमें यह
पूजाविधी होती
है वे
देवीके मंदिर
होते हैं
जैसे रेणुका
या यल्लमा।
देवदासीके
नाते समर्पित
हो जानेके
बाद उस
लडकीका अपने
मातापिता और
परिवारसे नाता
टूट जाता
है। उसी
क्षेत्रकी प्रौढ
देवदासियाँ
उसकी अभिभावक
बनती हैं।
इनके विवाह
और गृहस्थीकी
परंपरा या
अनुमति नही
है। लेकिन
अक्सर आसपासके
गांवोंके चौधरी,
पाटील
इत्यादी किसी
देवदासीको
शरीरसंबंधके
लिये रख
लेते हैं।
फिर उस
देवदासीका भरण
पोषण और
बच्चे हुए
तो उनका
भी भरणपोषण
वही व्यक्ति
करता है
हालाँकि देवदासी
कभी कानूनी
तौरपर उस
व्यक्तिको अपना
पति नही
कह सकती
है। बीसवीं
सदिमें एक
बात और
जुड गई
कि शहरकी
और आनेवाली
देवदासियाँ
अक्सर वेश्या-व्यवसाय
या फ्लेश-ट्रॅफिकिंगकी
शिकार बनने
लगीं।
पिछली
तीन सदियोंमें
इनकी परम्पराओंमें
कई अन्य
परिवर्तन भी
आये। सुधारके
बहुतेरे प्रयास
भी हुए
हैं जो
कई अर्थोंमें
सफल भी
कहे जायेंगे।
लेकिन कुल
मिलाकर आज
भी दो
बातें पूरी
तरह समाप्त
नही हुई
है --
किसी
न किसी
परिवारके द्वारा
अपनी बच्चीको
देवदासी बनानेके
लिये छोडा
जाना और
देवदासियों
द्वारा देवीके
नामपर जोगवा
माँगा जाना।
देवदासी छोडनेका
सबसे बडा
केंद्र कर्नाटकमें
सौंदत्ती ग्रामका
रेणुका-मंदिर
है।
जनवरी
1984
में
मेरी नियुक्ति
सांगलीके
जिलाधिकारीके
पदपर हुई।
दूसरे ही
दिन एक
समाचार पत्रने
छापा –
सांगलीमें पहली
बार कोई
महिला जिलाधिकारी
आई हैं।
यहीं,
अपने
जिलेमें एक
गांव जत
है,
जहाँ
यल्लम्माका
मंदिर है
जिसमें हर
वर्षकी पौष
पौर्णिमाको
विधिपूर्वक
देवदासी लडकियाँ
समर्पित की
जाती है।
अबतकके किसी
पुरूष जिलाधिकारीने
इस प्रथाको
नही छेडा
है,
लेकिन
अब यहाँ
महिला जिलाधिकारी
आई हैं,
तो
क्या इस
प्रथाको रोक
सकेंगी ?
पौष
पौर्णिमा
सन्निकटकालमें
ही है।
इस
लेखके व्यंगबाण,
आह्वान
इत्यादिको
दुर्लक्षित
करके मैंने
सोचा कि
मुझे क्या
करना चाहिये।
मनने कहा
कि इस
प्रथाको रोकना
चाहिये। मैंने
पौष पौर्णिमाके
मुहूर्तके लिये
जतका दौरा
तय किया
और तहसिलदारको
सूचना भेजी
कि मैं
उस दिन
सुबह सुबह
यल्लमा मंदिरमें
माताका दर्शन
और दोपहरमें
अगल –
बगलके गांवोंकी
देवदासियोंके
साथ मीटींग
करनेवाली हूँ
– सबको
समाचार देकर
तैयारी की
जाये।
नियत
दिनपर भली
सुबह जत
पहुँची। मंदिरमें
माताका दर्शन
और पूजन
किया। पुजारी
थोडा उल्लसित
और थोडा
आशंकित था
क्योंकि उस
छोटे गांवके
छोटे मंदिरमें
कोई जिलाधिकारी
आये यह
उसकी अपेक्षासे
बाहर था।
मैंने भी
दुर्गा सप्तशतीके
बचपनमें पढे
हुए अंशोंका
सस्वर पाठ
करते हुए
सबको चौंका
दिया। मुझे
खुद भी
अनुमान नही
था कि
मैं ऐसा
करूँगी ।
शायद यह
उस परिवेशका
प्रभाव था।
मंदिरके
अंदर तो
मैं बडी
भक्त बनी
थी लेकिन
बाहर मेरी
गाडीके साथ
कुछ पुलिसकर्मी
थे,
तहसिलदारने
इलाकेके पोलिस
इन्स्पेक्टरको
भी बुला
लिया था।
गाडीपर जिलाधिकारीकी
उपस्थिति
दिखानेवाली
लालबत्ती शोभायमान
थी। कई
प्रौढ देवदासियाँ,
अगल
– बगलके
गांवोंके कई
सरपंच और
छोटे नेतागण
तथा तीन–चार
अभिभावक अपनी
छोडी जानेवाली
बच्चियोंके साथ
पूजाविधानके
लिये जमा
हुए थे।
मैंने
सबको सुनाते
हुए पुजारीसे
कहा कि
आज और
आजके बाद
किसी वर्ष
इस यल्लमा
माताके मंदिरमें
देवदासी छोडनेका
विधान नही
करवाया जायगा।
जो इस
आदेशका उल्लंघन
करनेका प्रयास
करेगा उसपर
देवदासी प्रतिबंधन
कानूनके अंतर्गत
गिरफ्तारी,
एफआयआर
और मुकदमेकी
कारवाई होगी।
इस कार्यवाहीमें
पुजारी,
अभिभावक,
अन्य
उपस्थित गण्यमान्य
व्यक्ति और
प्रौढ देवदासी
इत्यादी किसीको
छूट नही
होगी। बाकी
जो मंदिरमें
जाकर दर्शन
करना चाहता
हो,
जा
सकते हैं,
मैं
यहाँ अभी
तीन घंटे
और रुकनेवाली
हूँ।
जत
गांवके लिये
या वहाँ
जमा नेताओंके
लिये मैं
अपरिचित नही
थी। क्योंकि
जिलाधिकारी
बननेसे पहले
मैं इसी
जिलेके जिला
परिषदमें मुख्य
अधिकारी थी
और सरपंच,
पंचायत
समिती सदस्य,
इत्यादि
स्थानीय नेता
मेरे अच्छे
कामसे प्रभावित
थे। लेकिन
आज वे
मेरा नया
रूप देख
रहे थे।
उन सबकी
ओरसे तीन
प्रश्न उठे
-
पहला
कि यदि
देवदासियाँ ना
हों तो
मंदिरकी सफाई
कौन करेगा
?
मैंने
कहा चलिये,
एक
झाडू मैं
उठाती हूँ,
एक
एक आप
उठाइये और
आरंभ करिये।
फिर जत
गांवके सरपंचको
याद दिलाया
कि यहाँके
मंदिरमें सफाई
कर्मचारी क्यों
नियुक्त नही
हैं?
इसपर
यह प्रश्न
समाप्त हुआ।
दूसरा प्रश्न
उठा कि
आपका आचरण
धर्मके विरूद्ध
है। मैंने
कहा,
शास्त्र
तो मैंने
भी पढे
हैं,
आप
दिखाइये किस
ग्रंथमें लिख
है देवदासी
छोडनेके लिये।
और जिस
देवीको मैं
शक्तिस्वरूपा
देखती हूँ,
उससे
ये बच्चियाँ
क्या कहें
-
कि
तुम तो
शक्तिस्वरूपा
हो पर
हम हैं
लाचार,
मजबूर,
स्वत्वविहीन!
तो
यह किस
देवीको अच्छा
लगेगा ?
पुजारीको
अबतक यह
समझ आ
गई थी
कि वह
मुझसे शास्त्रार्थ
नही कर
सकता ।
फिर सबने
अन्तिम शस्त्र
चलाया --
आपपर
और इन
बच्चियोंपर
देवीका भयानक
कोप होगा
। मैंने
कहा चलिये,
सब
लोग अंदर
मंदिरमें चलिये
और मिलकर
देवीसे कहेंगे
कि जो
भी कोप
करना हो,
जिलाधिकारीपर
करे। और
मैं भी
पूछँगी कि
जब मैं
तुम्हें माता
कहती हूँ,
तो
तुम्हारा कोप
भी तो
प्रेमभरा ही
होगा ना
!
इतना
कहकर मैं
जितंमया (
मैं
जीत गई
)
वाली
मनस्थितीमें
गर्व कर
ही रही
थी कि
उन्हीं देवदासियोंमेंसे
एकने भारी
स्वरमें प्रश्न
पूछा -
हमारी
ये परंपरा
बंद हुई
तो हम
क्या खायेंगी
?
यही
सबसे कठिन
और गरीबीकी
भयावहता दिखानेवाला
प्रश्न था।
इसका उत्तर
भी तत्क्षण
देना आवश्यक
था अन्यथा
अबतककी सारी
जीत,
सारे
कानून,
और
सारे शास्त्रार्थ
फेल होनेवाले
थे। लेकिन
उस दिन
शायद देवीने
भी ठान
लिया था
कि अब
इस प्रथाको
बंद कराना
है। मुझे
उपाय सूझा
--
इसी
जत गांवमें
जिला परिषदकी
ओरसे एक
मुर्गी ब्रीडींग
सेंटर चलाया
जाता था
जहाँ आठ
सप्ताहतक मादा
चूजे पालकर,
उनका
इम्युनाइझेशन
इत्यादि कराकर
किसानोंको बेचे
जाते थे,
और
किसानोंके लिये
इन मुर्गियोंके
अंडे अच्छी
कमाईका स्रोत
हो जाते
थे। उस
सेंटरका इन्चार्ज
वेटेरनरी डॉक्टर,
श्री
येलगी एक
कार्यतत्पर
अधिकारी था
यह मैं
जानती थी।
मैंने ऐलान
किया कि
जो देवदासी
आजके बाद
अपनी मेहनतका
कमाया खाना
चाहती हो,
उसके
लिये जिला
परिषदके ब्रीडींग
सेंटरमें
प्रशिक्षणकी
व्यवस्था की
जायगी। इस
कालमें भत्ता
मिलेगा। तीन
महीनेके बाद
जब वे
स्वयं मुर्गी
पालने और
अंडोंका व्यवसाय
करनेमें सक्षम
होंगी तो
व्यवसाय प्रारंभ
करनेहेतु सहायता
व सब्सिडी
मिलेगी। जो
भी इच्छुक
है,
अभी
जाकर मुर्गी
सेंटर देखकर
आये। दोपहरको
यहाँ प्रशिक्षणके
फॉर्म इत्यादि
भरवाये जायेंगे।
यह
सब कुछ
अचानक और
बिना किसी
योजनाके हो
रहा था।
वास्तवमें मैंने
दोपहरको जो
मीटींग रखी
थी उसमें
देवदासियोंसे
उनकी समस्याएँ
और संभावित
उत्तर जानना,
फिर
सरकारी तरीकेसे
तहसिलदार या
बीडीओसे योजना
मंगवाना,
फिर
समयके प्रवाहमें
कभी तीन
–चार माहमें
उनका कार्यान्वयन
करवाना इत्यादि
ढाँचा मेरें
मनमें था।
लेकिन यहाँ
सब कुछ
एक क्षणके
अन्तरालमें घट
जानेको उतावला
हो रहा
था। जिला
परिषदमें अच्छे
प्रशासकके रूपमें
बनी पूर्वसंचित
ख्याति ही
मेरे काम
आ रही
थी। क्योंकि
सेंटरका डॉक्टर,
बीडीओ
वगैरा सब
मेरी खातिर
इस कामको
अच्छी प्रकार
निभानेवाले थे।
जिला परिषदमें
मेरी जगह
नये मुख्य
अधिकारी श्री
रमणी आये
थे और
पिछले दस
दिनोंमें ही
मेरे बच्चोंके
अच्छे दोस्त
बन गये
थे,
उनका
होना भी
काम आनेवाला
था क्योंकि
कागजोंपर योजना
मंजूरी उन्हींकी
स्वाक्षरीसे
होने वाली
थी। सांगली
वापस जानेपर
उन्हें भी
इसके लिये
राजी कराना
पडेगा। लेकिन
अभी तो
इस क्षणका
निर्वाह करना
अत्यावश्यक था।
दोपहरकी
मीटींगसे पहले
ही सत्ताइस
देवदासी महिलाओंने
प्रशिक्षणके
लिये फॉर्म
भरे। बच्चियाँ
छोडने आई
अभिभावक महिलाओंमेंसे
भी किसी
किसीने फॉर्म
भरे। जिला
परिषदकी ओरसे
चलाये जानेवाले
IRDP
और
TRYSEM
कार्यक्रमके
लिये प्रपोजल
बनानेवाले
बीडीओने पूछा
मॅडम,
ये
महिलाएँ तो
देवदासी नही
हैं ?
मैंने
कहा,
प्रपोजलमें
लिखो कि
आगे चलकर
इन प्रशिक्षित
देवदासियोंको
समाजके मुख्य
प्रवाहमें
लानेहेतु प्रशिक्षण
कालमें ही
हम तीस
प्रतिशत गरीब
महिलाओंको भी
लेंगे जो
देवदासी ना
भी हों
लेकिन IRDP
में
लाभ पानेकी
हकदार हैं।
दोपहरकी
सभामें सेंटरके
डॉक्टर येलगीने
बिना किसी
पूर्वतैयारीके
एक अच्छासा
भाषण दिया
कि मुर्गियोंकी
देखभाल कैसे
की जाती
है,
नुकसानसे
कैसे बचा
जाता है,
और
इस कामको
सीखना उन
देवदासियोंके
लिये कोई
मुश्किल नही
पडनेवाला,
इत्यादि।
उस शाम
मेरे साथ
बैठकर उसने
तीन महिनेके
प्रशिक्षणका
सिलेबस और
हर दिन
क्या क्या
पढाया जाये
उसका चार्ट
बना डाला।
एक
सप्ताहके अंदर
चार पांच
आरंभिक काम
पूरे हो
गये। ट्रेनिंग
सेंटरका उद्घाटन
जिला परिषद
अध्यक्ष,
मैं
और रमणीने
मिलकर किया।
TRYSEM
य़ोजनाकी
मंजुरी लेकर
बीडीओने तीन
महीनेके स्टायपेंडकी
रकम भी
मुर्गीपालन
सेंटरको दे
डाली। तहसिलदारने
बस परिवहन
कार्यालयसे
सबके लिये
बसके पासकी
व्यवस्था कराई।
कई देवदासी
महिलाएँ अपने
बच्चे भी
साथ लानेवाली
थीं। सो
उनके लिये
क्रेश चलानेका
काम मैंने
सांगलीकी एक
स्वयंसेवी संस्था
भगिनी निवेदिता
प्रतिष्ठानको
सौपा। उनके
क्रेशघरमें
खिलौने,
आया,
इत्यादीकी
व्यवस्था भी
तहसिलदारने
करवाई।
पहले
सप्ताहके बाद
ही डॉक्टर
येलगी,
बीडीओ
और तहसिलदार
तीनोंके अलग
– अलग
रिपोर्ट आये
कि सब
कुछ सुचारू
रूपसे चल
पडा है।
मैं और
रमणी इस
प्रश्नको लेकर
बैठे कि
तीन महीने
बादके लिये
हमें क्या
तैयारी करनी
है।
उन
तीन महीनोंमें
और अगले
चार वर्षोंमें
कई कठिनाइयाँ,
संघर्षके
प्रसंग,
आदिके
बावजूद सांगली
जिलेका यह
देवदासी आर्थिक
पुनर्वास प्रकल्प
कई प्रकारोंसे
मेरे कामका
और मेरी
समझ बढानेका
हिस्सा बना
रहा। इस
दौरान सरकारी
विभागोंका
समन्वय–अभाव
और फिर
भी उसी
तंत्रके इक्के
– दुक्के
कार्यसमर्पित
अधिकारियोंका
आश्वासक अस्तित्व,
दोनोंको
देख लिया।
पूरे प्रकल्पमें
लगभग तीन
सौ देवदासियाँ
प्रत्यक्षतः
लाभान्वित हुई।
उन चार
वर्षो का
ब्यौरा फिर
कभी।
मेरे
लिये सर्वाधिक
संतोषकी बात
यह रही
कि जत
ग्रामके यल्लम्मा
देवीके मंदिरमें
देवदासी बच्चियोंको
छोडनेकी प्रथा
सदाके लिये
समाप्त हो
गई। मेरे
पश्चात् वहाँ
आनेवाले
जिलाधिकारियोंने
भी इस
बातको सुनिश्चित
किया कि
प्रथा फिरसे
न चल
पडे। यह
सारा सुधार
कालचक्रके उस
एक क्षणमें
समाया हुआ
था जिस
क्षण किसी
देवदासीने मुझसे
पूछा था
– हम
क्या खायेंगी
और मैंने
उस क्षणका
उत्तरदायित्व
पूरे समर्पणसे
निभाया था।
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