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Sunday, April 28, 2019

गर्भनाल ७ Sept-- धरणगांवकी सुगंध

गर्भनाल ७             धरणगांवकी सुगंध


अपनी IAS की नौकरीकी बाबत कुछ कहूँ इससे पहले अपने जन्मगांव, बचपन, शिक्षादीक्षा आदिके विषयमें कुछ कहना आवश्यक है।
मेरा जन्म धरणगांव नामक एक छोटे गांवमें हुआ। यह महाराष्ट्रके उत्तरी छोरपर जलगांव जिलेमें पडता है। इसे गांव कहना ठीक न होगा क्योंकि मेरे जन्मके समय भी यह अगल बगलके डेढ– दो सौ गांवोंके लिये बाजारका केंद्र था। साळी अर्थात् बुनकर समाज यहाँ बहुसंख्य था। वे दिनभर धागा रंगते और हाथकरघेपर दरियाँ, साडियाँ बुनते। महाराष्ट्रकी टिपिकल नौ गजी साडी बुननेके लिये उनके मैदानमें १०-१० गज लम्बाईपर खूँटे गडे होते और उनपर साडियाँ बुनी जातीं, वह भी शोभिवंत किनारी व पल्लूके साथ। बचपनमें कई बार मैंने पिताजीके साथ जाकर उनके घरोंसे साडियाँ, दरियाँ खरीदी हैं।
धरणगांवमें छोटी म्युनिसिपालिटी थी, ब्रिटिश कालीन सीमेंटकी बनीं पक्कीं सडकें थीं और गिरणा नदीपर बना एक बांध भी था। मुख्य रास्तेपर एक हायस्कूल, आटा पिसाईकी चक्की और पोस्ट ऑफिस थे। उनके ठीक आगे सीमेंट सडक समाप्तिकी सूचना देता हुआ एक प्रवेश द्वार था जिसका नाम सुभाष दरवाजा था। इसी कारण नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेरे जीवनके पहले हीरो थे।
गांवकी सबसे मुख्य बात थी रेल्वेसे गमनागमन। भुसावलसे सूरत एक फास्ट और दो पॅसेंजर ट्रेनें, इस प्रकार दिनमें ६ बार रेलगाडियाँ आती जाती थीं जिनकी सीटीकी आवाज सुनकर लोग समयका अंदाज लगाया करते। लेकिन अंगरेजोंने इसे तहसीलका गांव नही बनाया था क्योंकि पेयजलकी पर्याप्त व्यवस्था नहीं थी। सो पासका ही छोटा गांव एरंडोल तहसील स्थान बनाया। यह गांववालोंके लिये कचोटका विषय था जिसका परिमार्जन वर्ष 2000 में जाकर हुआ। तब मेरे पिताने मिठाइयाँ बाँटी थीं।
मेरे दादाजीका जन्म इसी गाँवमें हुआ। वे कुशाग्र बुद्धिके धनी थे। सातवीं कक्षा पासकर वे स्कूलमें ही गणित शिक्षककी नौकरी करने लगे। तब उनके पिताने कहा कि तुम नौकरी करोगे तो तुम्हारी पगार तुम्हारी रहेगी, इसलिये कोई ऐसा उद्योग करो जिसमें पूरा परिवार सहभागी हो, ताकि तुम्हारा छोटा भाई भी कुछ कमाई पा सके। तब दादाजीने नौकरी छोडकर छोटे भाईके साथ धरणगांवकी पहली लकडीकी दूकान खोली। अपने व्यापारके निमित्त वे अक्सर गुजरात और कभी कभी बनारस और कोलकाता भी जाते थे। उत्तम गुजराती बोलते थे। एक बार वे बनारससे राधा-कृष्णकी पीतलकी भव्य मूर्तियाँ ले आये जिनका आज भी हमारे परिवारमें पूजन होता है । गांवमें वे अपने एक साथी श्री बालाजीके साथ साळी समाजके मैदानमें भजन व कीर्तनका कार्यक्रम करते थे। अल्पवयसमें मेरी दादीजीका देहान्त होनेके बाद तो रोज ही भजन- कीर्तनका कार्यक्रम होता था। सो घुमक्कडीकी, वैष्णवधर्मकी तथा गणित-प्रेमकी विरासत मुझे दादाजीसे प्राप्त हुई।
धरणगांवके क्षेत्रीय इलाकेका नाम खान्देश है। बोलीभाषा अहिराणी और स्कूली भाषा मराठी। सातपुडा पर्वत श्रेणीमें बसा हुआ प्रदेश। काली माटी। कपास, मूंगफली, तूरदाल और केला यहाँके पारम्पारिक कॅशक्रॉप हैं। अन्यत्र ज्वार व बाजरा। मुख्य नदियाँ गिरणा, तापी और पांझरा। पूरे खान्देशमें शिक्षाकी सुविधाके केंद्र सीमित थे। धरणगांवमें हायस्कूल था सो अन्य गांवोंसे बच्चे पढाईके लिये यहाँ आते। वे माधुकरीसे निर्वाह चलाते थे। माधुकरीका अर्थ हुआ कि वे केवल ३ नियत घरोंमें पकाया गया अन्न सुबहकी भिक्षामें लेंगे और उसी अन्नपर पोषण करते हुए अपनी पढाई पूरी करेंगे। मेरे दादाजीके घरसे और उनके भाई अप्पाके घरसे दो- दो बच्चोंके माधुकरीकी व्यवस्था थी।
यहाँ मेरी आयुके पहले सात वर्ष बीते। इस आयुतक आते आते अकल और समझ दोनों इतने बढे होते हैं कि सही गलतकी अपनी व्याख्या व्यक्ति स्वयं बनाने लगे। मैंने भी कई बातोंको मनकी गांठमें बांधना आरंभ किया या कि ये अच्छा है या ये अच्छा नही है।
अग्निहोत्री वाडा नामक एक छोटे मुहल्लेमें दादाजी और सगे भाई अप्पाका घर एक दूसरेसे समकोण बनाते हुए थे। उससे परे उनकी चचेरी विधवा भौजाई छोटीमाईका घर। दादाजीने तीनों घरोंके लिये एक साझा कुआँ बनवाया था जिसपर तीन रहाट लगे थे। एक दादाजी व अप्पाका साझा, एक छोटीमाईका और तीसरा रहाट पूरे गाँवके पानी भरनेके लिये। अपनी युवावस्थामें गाँवके सभी परिवारोंमें दादाजी सर्वाधिक शिक्षित- अर्थात सातवीं पास। बादमें उनका बेटा अर्थात पिताजी डॉक्टरेट, उनकी बहू अर्थात मेरी माँ मॅट्रीक। इस प्रकार शिक्षाके कारण पूरे परिवारका रूतबा था। मेरी सगी बुआएँ व्याहकर दूसरे गाँवोमें जा चुकी थीं। पर उनके बच्चे पढाईके लिये हमारे घरपर थे। उधर अप्पाके परिवार में छः पोता–पोती, मेरी चचेरी बुआएँ। ये सबके सब माँका अत्यधिक सम्मान करते थे। सबकी पढाईमें माँकी सहायता ली जाती- खासकर गणितके लिये और रंगोली बनानेके लिये। ऐसे परिवारमें मैंने भी कुछ सम्मान जोडा – गाँवसे और पूरे खान्देश इलाकेसे IAS में आनेवाली पहली व्यक्ति। छः वर्ष पश्चात् मेरा भाई ऐसा दूसरा व्यक्ति बना।

लेकिन धरणगांवको सही सम्मान दिलानेवाले व्यक्तित्वके धनी थे बालकवि ठोंबरे (१८९०-१९१८जिनकी मधुर सरस कविताएँ पढकर मेरी पीढीके सारे बालक बडे हुए हैं। मराठी पहलीसे ग्यारहवींतक हर कक्षामें उनकी कविता होती थी जो आजतक जनमानसमें प्रतिध्वनित होती हैं। संगीतकार वसंत देसाईने इनमेंसे कई रचनाएँ स्वरबद्ध कर उन्हें नया आयाम दिया है। ऐसी ही एक कविता गाँवकी नहरकिनारे खडे औदुंबर (गूलरपेडके विषयमें है जिसने उस पेडको भी धरणगांव-भूषण बना दिया है।
दादाजीने एक गाय पाल रखी थी। खुद दूध दुहते थे और एक कप तभी पी जाते थे। गोमूत्रसे कईयोंका इलाज करते। जोडोंके दर्दवाले उनकी सलाहसे गायपर हाथ फेरने आते थे। दादाजी, अप्पा और उनके बेटे भाईसा दुकानमें बैठा करते थे और हम बच्चे उन्हें खाना पहुँचाने जाते। गर्मियोंमें जलती धूपमें नंगे पैर। सो सीमेंटका रास्ता छोड हमलोग काली मिट्टीवाले खेतोंके रास्ते जाते थे। अप्पाके घरमें फर्शी नही बिछी थी। मेरी बुआ या चचेरी बहनें बडे बडे गोल गोल दायरेमें गोबरसे लिपाई करती हुई सुंदरसे डिजाईन बनाया करतीं। वे डिजाइन और वह महक, काली मिट्टीपर चलना, कुएँके पानीसे मुँह अंधेरेमें स्नान करना इत्यादि मुझे आज भी प्रिय है, हालाँकि कई वर्षांसे इन बातोंके साथ रहना नही हुआ। न गायें, न कुआँ, न काली मिट्टी।
मेरे जन्मके समय पिताजी पुणेके पास लोनावालाकी प्रसिद्ध कैवल्यधाम योग संस्थामें वेदान्त पढानेकी नौकरी करते थे। और इसी विषयपर अपनी डॉक्टरेट भी पूरी कर रहे थे। साथ साथ फलज्योतिष भी सीख ली थी जिसका आगे चलकर अच्छा लाभ होने वाला था।
लेकिन उन्हें डॉक्टरेट मिल गई तो संस्थाने कहा कि अब हम आपके लायक पगार नही दे पायेंगे। इस प्रकार पिताजीको धरणगांव आना पडा और उनके अगले छः वर्ष कठिनाईमें बीते। इस दौरान मुझे धरणगांवका, दादाजीका भरपूर साथ मिला। पिताजीको शिक्षककी अल्पकालीन नौकरियाँ व्यारा (गुजरात) और खांडवामें (मध्य प्रदेश) मिलीं। पर मैं धरणगांव ही रही। यहाँ मेरे चचेरे भाई – बहनोंके अलावा फुफेरे भाई बहन भी अपने गांवसे दूर पढनेके लिये दादाजीके पास रहते थे। घरमें कुल दस- बारह जनोंका भोजन माँ अकेले बनाती लेकिन हर किसीसे कुछ ना कुछ छोटा काम करवाती थी। मुझसे भी। इस प्रकार मुझमें किसी बडे कामको छोटे टुकडोंमें बाँटकर करनेका संस्कार आया जो आजतक मेरे काम आ रहा है।
उस कठिन समयमें ही माँने अपनी- पढाईको आगे बढानेकी योजना बनाई। नागपूर बहुत पास नही तो बहुत दूर भी नही था। वहाँकी एसएनडीटी महिला युनिवर्सिटीमें उन दिनों यह व्यवस्था थी कि महिलाएँ बीएके एकेक वर्षके लिये फॉर्म भरें, घरपर रहकर पढाई करें और अन्तिम तीन महीनोंके लिये उनके होस्टेलमें रहकर पढाई और परीक्षा पूरी करें। इसका लाभ उठाते हुए माँने एक एक कर तीन वर्षोंमें बीए पास कर लिया। जब वह नागपूर जाती तो मैं दादाजीके पास ही रहती । छोटी बहनको पहले वर्ष माँ साथ ले गई। अगले वर्ष उसे भी छोडकर छोटे भाईको लेकर गई। इन कारणोंसे दादाजीको मुझसे लगाव था। उनके सारे पोते- पोतियाँ गणितके नामसे भागते थे, केवल मैं रूककर उनके प्रश्न जबानी सुलझाया करती। इससे जुडा एक मजेदार किस्सा है।
स्लेट पेन्सिल पर लिखकर गणित करनेकी मेरी आदत नही थी। सात वर्षकी आयुमें जबलपूरमें पहली बार स्कूल गई । मामूलीसी जुबानी टेस्टमें मेरी गणित व भाषाकी प्रवीणता देख प्रधानाध्यपकने मुझे सीधे तीसरी कक्षामें दाखिला दिया। थोडी देरमें गणितके गुरूजीने टेस्ट रखी थी। खडे होकर एकेक गणित जुबानी सुलझाना, फिर गुरूजी कहें तब बैठकर स्लेटपर उत्तर लिखना और फिर अगले गणितके लिये खडे हो जाना। इस प्रकार दस गणित पूछे गये जो मेरे हिसाबसे मैंने सही हल किये थे। गुरूजी सबकी स्लेट जाँचकर अंक दे रहे थे। थोडी देरमें घोषणा हुई - पहले नंबरके अंक हैं- पचासमें सैंतीस। फिर स्लेट दिखाकर पूछा – ये किसकी स्लेट है? में रो पडी। गुरूजी कहने लगे, क्यों रोती है, तुझे तो पहला नंबर है। मैंने कहा मेरे सभी हल ठीक थे। गुरूजीने स्लेट फिरसे जाँची और देखा कि वाकई सारे हल सही थे लेकिन लिखनेका क्रम उलटपुलट हो गया था। ठीक है, आजके तुम्हारे अंक इतने ही रहेंगे, सैंतीस। आगेसे ध्यान रखना।
यह किस्सा जब घरपर जाकर सुनाया तो दादाजीने कहा अरे, इससे लिखनेका अभ्यास करवाओ। तबसे वे मुझे बडे बडे लिखकर करनेवाले गणित करवाने लगे।
कुल मिलाकर बचपनके सात वर्षोंमें मैंने ग्रामीण जीवनको मजेसे जिया। गायकी देखभाल, गोबरसे लीपना, रंगोली बनाना, तपी हुई काली मिट्टी में दौड लगाना, कुएँके रहाटसे पानी खींचना, किसानोंका खेतमें मोट चलाते देखना व उनके गीत सुनना, गांवकी लकडी घानीपर मूँगफली और तिलका तेल निकलवाकर लाना, ऊखलमें चावल कूटना, घरमें ही जवार या बाजरा पीसना, चूल्हेपर खाना पकाना, ये सारे काम घरकी महिलाएँ, बडी बहनें करतीं और मैं भी बीच बीचमें घुस जाती। उधर सारे भाई लोगोंके साथ गिल्ली डंडा, पतंग उडाना, मांजा बनाना, लट्टू घूमाना, कंचे खेलना और एक दूसरेके कंचे लूटना ये सब भी करती थी। पडोसमें एक किसान परिवार था। उनका बेटा चंदर हमसे काफी बडा था। उसकी बैलगाडीमें बैठकर यात्राओंमें जाना, दादाजीके साथ पंद्रह दिनमें एक बार उनके खेतका चक्कर लगाना, जवारकी डंठलसे खिलौने बनाना, ये नित्य कर्मके समान थे। वाक - जूटकी तरहका एक पौधा – उससे रस्सी बनाते बुरुड, कलई लगानेवाले लोहारकी धौंकनी, रुई साफकर गद्दे भरनेवाले पिंजारी, तांबेके बर्तनमें पडे छेदको जोडनेवाले औतारी, सोना पिघलाकर गहने बनानेवाले सुनार, लंबी लंबी नौगजी साडियाँ और मोटी मजबूत दरियाँ बनानेवाले बुनकर, इन सभी ग्रामीण व्यावसायिकोंका काम दादाजी अपने साथ ले जाकर दिखाते।
महाराष्ट्रमें एक बडा ही रूढ शब्द है - बारा बलुतेदार। अर्थात बारह प्रकारके व्यवसायिक जो हर गांवमें चाहिये होते हैं- सोनार, लोहार, चर्मकार, बढई, नाई, दर्जी, बुनकर, पिंजारी, औतारी, कलईकार, चरवाहा, बुरूड, कासार (चूडियाँ भरनेवाला) ये पारंपारिक व्यवसायिक थे तो दूसरी ओर पोस्टमास्टर, स्टेशन मास्टर, बँक मॅनेजर आदि आधुनिक यांत्रिकी युगके माहिर लोग थे। यात्राके लिये आसपास पद्मालय, मनुदेवी, उनपदेव आदि तीर्थ थे। गांवमें ही सायंकालमें हम कई भाई-बहन टोली बनाकर मंदिर मंदिर जाते थे। गांवके एक छोरपर छोटासा जागृत गणेश मंदिर है चिंतामण मोरया। आज भी धरणगांवका कोई व्यक्ति चाहे विदेशमें ही क्यों न हो, यदि उसे मनौती मांगनी पडे तो वह चिन्तामण मोरयासे ही निवेदन करता है कि आकर तेरे दर्शन करूँगा।
धरणगांवसे दूर जाकर भी इस गांवसे मेरा नाता बना रहा क्योंकि बिहारमें नौकरी करते हुए पिताजी हम सबोंको गर्मीकी छुट्टियाँ बिताने यहीं ले आते और रिटायरमेंटके बाद भी वे कुछ वर्ष यहीं रहे। मेरे लिये हर बार धरणगांव जानेका अर्थ था अपनी माटीसे कुछ ऊर्जा लेकर आना।
सात वर्ष पहलेकी घटना है। दादाजीका घर हमलोग पडोसी चंदरको बेच चुके थे और अप्पाके घरका जो इकलौता बेटा अभी भी गाँवमें ही रहा था अर्थात मेरा छोटा चचेरा भाई, उसने भी चिंतामण मोरयाके पास बनी नई पॉश बस्तीमें घर ले लिया था। मैं किसी सरकारी कामसे दौरेपर जलगांव गई तो मन हुआ धरणगांव जाकर एक बार घर देख आऊँ। एक किरायेकी कार ली। गाँवतक आकर पहले मोरया मंदिर गई। थोडी देर बैठी, तबतक पता चला कि भाई-भाभी दूसरे गाँव गये हैं। अब उठकर घरके रास्ते चलूँ, तबतक मनमें एक प्रचंड ज्वार उमड पडा। लगा जैसे आज यदि घरको देखकर उससे विदा ली, तो यह उससे सदाके लिये विदा लेने जैसा होगा, वह सदाके लिये पराया हो जायगा। तो मैं वहाँ गई ही नही। और इसीलिये आज भी वह घर मेरा ही है। चंदरकी मृत्यूपश्चात् अब उसका बेटा महेश मेरे संपर्कमें है। कई बार कहता था, ताई, आकर देख जाओ। जैसा दादाजीके समय था, वैसा ही रखा है। चंदरकी पत्नीसे भी मिलना था। तो हालमें मनको धैर्य बँधाकर गई। घरभरमें घूम आई और घरसे तथा महेशसे भी कहा – महेश यह मेरा घर है। उसने भी कहा – हाँ ताई, मैंने कब ना कहा है।
तब मैंने एक योजना बनाई। गाँवकी माटीसे उऋण होनेकी योजना। हर वर्ष इस गाँवमें कुछ अच्छे कामके लिये मैं अपनी पेंशनका दसवाँ भाग खर्च करूँगी। पिछले वर्ष नौवीं कक्षा के तीन अलग अलग स्कूलोंके तीन तीन ऐसे बच्चोंको सम्मानित किया जिन्होंने मराठी, हिंदी और संस्कृतमें अच्छे अंक पाये थे। अब हर वर्ष इन्हीं योजनाओंको निखारकर आग ले जानेकी सोची है।
सरकारको भी एक सुझाव दिया है। इनकम टॅक्समें जिस प्रकार ८०जी में छूटका प्रावधान है, वैसा ही कुछ अधिक खास प्रावधान किया जाय ताकि लोग अपने गाँवके लिये कुछ व्यय करें। ऐसा किया तो गाँवोंकी समृद्धिका एक नया रास्ता खुलेगा। इस काममें जलगाँव जिलेके कई कनिष्ठ सरकारी अधिकारी मेरे साथ हाथ बँटा रहे हैं, यह और भी प्रसन्नताकी बात है।
एक बहुचर्चित उपन्यास है - गॉन विथ दी विंड। उसकी नायिकाका वर्णन है कि जब भी कठिनाईके दिनोंमें वह अपने पिताके घर आती है, तो उसे ऊर्जा मिलती है और वह कहती है -- अब यहाँ आ गई हूँ तो कलका दिन नया होगा, सारी कठिनाइयोंसे नया रास्ता दिखानेवाला After all, tomorrow is another day.
मैंने तीस वर्षकी आयुमें यह उपन्यास पढा। और मैं आश्चर्यचकित रह गई कि उस नायिकाको अपने गांव, अपने घर आकर वही ऊर्जा मिल रही थी जो मुझे भी धरणगांवमें सदा मिलती रही है।
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गर्भनाल ४ - जून २०१९ - देवदासी समस्यासे मेरा आमना–सामना


लेखांक ४ -- देवदासी समस्यासे मेरा आमना–सामना
गर्भनाल जून २०१९
मसुरी प्रशिक्षणके क्रमसे हटकर मैं आज वह घटना याद कर रहीं हूँ जब देवदासी समस्यासे मेरा आमना–सामना हुआ। यह घटना 1984 की है, महाराष्ट्रके सांगली जिलेकी।
स्कूल कॉलेजके दिनोंमें आचार्य चतुरसेन शास्त्रीका उपन्यास पढा था - जय सोमनाथ। उसमें देवदासी प्रथाका थोडासा वर्णन था। जय सोमनाथ हो या वैशालीकी नगरवधू हो या चित्रलेखा हो, ये सारे उपन्यास मध्यकालीन पृष्ठभूमिपर आधारित हैं जब शायद देवदास देवदासीकी प्रथा पनप रही होगी। देवदासता अर्थात देवताके मंदिरमें नृत्य, गायन, वादन आदि कलाओं द्वारा देवताको रिझाना। क्या स्त्री और क्या पुरूष, हर कलाकारके लिये अपनी कलाको निखारनेका और तौलनेका माध्यम मंदिर ही होते थे। उसीमें देवताके मंदिरकी साफसफाईका काम भी शायद शामिल था। मध्यकालमें हमारे देशके मंदिर ही खबरोंकी लेनदेनके केंद्र थे। राजाओंकी रणनीतियाँ भी शायद मंदिरके देवताकी साक्ष्यमें बनती थी। वहाँ कार्यरत देवदासियोंकी भी कोई भूमिका रहती होगी।
जो भी हो, लेकिन बीसवीं सदिके आते आते इस प्रथाका रुप यों हो गया कि प्रायः गरीब परिवारोंकी बच्चियाँ अधिकतर पिछडे वर्गकी बच्चियाँ मंदिरमें लाकर पूरे विधि विधानके साथ मंदिरमें समर्पित कर दी जाती थीं। यह चलन अधिकतर कर्नाटक, आंध्र, गोवा, उत्तरी तमिळनाडु और दक्षिण महाराष्ट्रमें था। जिन मंदिरोंमें यह पूजाविधी होती है वे देवीके मंदिर होते हैं जैसे रेणुका या यल्लमा।
देवदासीके नाते समर्पित हो जानेके बाद उस लडकीका अपने मातापिता और परिवारसे नाता टूट जाता है। उसी क्षेत्रकी प्रौढ देवदासियाँ उसकी अभिभावक बनती हैं। इनके विवाह और गृहस्थीकी परंपरा या अनुमति नही है। लेकिन अक्सर आसपासके गांवोंके चौधरी, पाटील इत्यादी किसी देवदासीको शरीरसंबंधके लिये रख लेते हैं। फिर उस देवदासीका भरण पोषण और बच्चे हुए तो उनका भी भरणपोषण वही व्यक्ति करता है हालाँकि देवदासी कभी कानूनी तौरपर उस व्यक्तिको अपना पति नही कह सकती है। बीसवीं सदिमें एक बात और जुड गई कि शहरकी और आनेवाली देवदासियाँ अक्सर वेश्या-व्यवसाय या फ्लेश-ट्रॅफिकिंगकी शिकार बनने लगीं।
पिछली तीन सदियोंमें इनकी परम्पराओंमें कई अन्य परिवर्तन भी आये। सुधारके बहुतेरे प्रयास भी हुए हैं जो कई अर्थोंमें सफल भी कहे जायेंगे। लेकिन कुल मिलाकर आज भी दो बातें पूरी तरह समाप्त नही हुई है -- किसी किसी परिवारके द्वारा अपनी बच्चीको देवदासी बनानेके लिये छोडा जाना और देवदासियों द्वारा देवीके नामपर जोगवा माँगा जाना। देवदासी छोडनेका सबसे बडा केंद्र कर्नाटकमें सौंदत्ती ग्रामका रेणुका-मंदिर है।
जनवरी 1984 में मेरी नियुक्ति सांगलीके जिलाधिकारीके पदपर हुई। दूसरे ही दिन एक समाचार पत्रने छापा सांगलीमें पहली बार कोई महिला जिलाधिकारी आई हैं। यहीं, अपने जिलेमें एक गांव जत है, जहाँ यल्लम्माका मंदिर है जिसमें हर वर्षकी पौष पौर्णिमाको विधिपूर्वक देवदासी लडकियाँ समर्पित की जाती है। अबतकके किसी पुरूष जिलाधिकारीने इस प्रथाको नही छेडा है, लेकिन अब यहाँ महिला जिलाधिकारी आई हैं, तो क्या इस प्रथाको रोक सकेंगी ? पौष पौर्णिमा सन्निकटकालमें ही है।
इस लेखके व्यंगबाण, आह्वान इत्यादिको दुर्लक्षित करके मैंने सोचा कि मुझे क्या करना चाहिये। मनने कहा कि इस प्रथाको रोकना चाहिये। मैंने पौष पौर्णिमाके मुहूर्तके लिये जतका दौरा तय किया और तहसिलदारको सूचना भेजी कि मैं उस दिन सुबह सुबह यल्लमा मंदिरमें माताका दर्शन और दोपहरमें अगल बगलके गांवोंकी देवदासियोंके साथ मीटींग करनेवाली हूँ सबको समाचार देकर तैयारी की जाये।
नियत दिनपर भली सुबह जत पहुँची। मंदिरमें माताका दर्शन और पूजन किया। पुजारी थोडा उल्लसित और थोडा आशंकित था क्योंकि उस छोटे गांवके छोटे मंदिरमें कोई जिलाधिकारी आये यह उसकी अपेक्षासे बाहर था। मैंने भी दुर्गा सप्तशतीके बचपनमें पढे हुए अंशोंका सस्वर पाठ करते हुए सबको चौंका दिया। मुझे खुद भी अनुमान नही था कि मैं ऐसा करूँगी शायद यह उस परिवेशका प्रभाव था।
मंदिरके अंदर तो मैं बडी भक्त बनी थी लेकिन बाहर मेरी गाडीके साथ कुछ पुलिसकर्मी थे, तहसिलदारने इलाकेके पोलिस इन्स्पेक्टरको भी बुला लिया था। गाडीपर जिलाधिकारीकी उपस्थिति दिखानेवाली लालबत्ती शोभायमान थी। कई प्रौढ देवदासियाँ, अगल बगलके गांवोंके कई सरपंच और छोटे नेतागण तथा तीन–चार अभिभावक अपनी छोडी जानेवाली बच्चियोंके साथ पूजाविधानके लिये जमा हुए थे।
मैंने सबको सुनाते हुए पुजारीसे कहा कि आज और आजके बाद किसी वर्ष इस यल्लमा माताके मंदिरमें देवदासी छोडनेका विधान नही करवाया जायगा। जो इस आदेशका उल्लंघन करनेका प्रयास करेगा उसपर देवदासी प्रतिबंधन कानूनके अंतर्गत गिरफ्तारी, एफआयआर और मुकदमेकी कारवाई होगी। इस कार्यवाहीमें पुजारी, अभिभावक, अन्य उपस्थित गण्यमान्य व्यक्ति और प्रौढ देवदासी इत्यादी किसीको छूट नही होगी। बाकी जो मंदिरमें जाकर दर्शन करना चाहता हो, जा सकते हैं, मैं यहाँ अभी तीन घंटे और रुकनेवाली हूँ।
जत गांवके लिये या वहाँ जमा नेताओंके लिये मैं अपरिचित नही थी। क्योंकि जिलाधिकारी बननेसे पहले मैं इसी जिलेके जिला परिषदमें मुख्य अधिकारी थी और सरपंच, पंचायत समिती सदस्य, इत्यादि स्थानीय नेता मेरे अच्छे कामसे प्रभावित थे। लेकिन आज वे मेरा नया रूप देख रहे थे। उन सबकी ओरसे तीन प्रश्न उठे - पहला कि यदि देवदासियाँ ना हों तो मंदिरकी सफाई कौन करेगा ? मैंने कहा चलिये, एक झाडू मैं उठाती हूँ, एक एक आप उठाइये और आरंभ करिये। फिर जत गांवके सरपंचको याद दिलाया कि यहाँके मंदिरमें सफाई कर्मचारी क्यों नियुक्त नही हैं? इसपर यह प्रश्न समाप्त हुआ। दूसरा प्रश्न उठा कि आपका आचरण धर्मके विरूद्ध है। मैंने कहा, शास्त्र तो मैंने भी पढे हैं, आप दिखाइये किस ग्रंथमें लिख है देवदासी छोडनेके लिये। और जिस देवीको मैं शक्तिस्वरूपा देखती हूँ, उससे ये बच्चियाँ क्या कहें - कि तुम तो शक्तिस्वरूपा हो पर हम हैं लाचार, मजबूर, स्वत्वविहीन! तो यह किस देवीको अच्छा लगेगा ?
पुजारीको अबतक यह समझ गई थी कि वह मुझसे शास्त्रार्थ नही कर सकता फिर सबने अन्तिम शस्त्र चलाया -- आपपर और इन बच्चियोंपर देवीका भयानक कोप होगा मैंने कहा चलिये, सब लोग अंदर मंदिरमें चलिये और मिलकर देवीसे कहेंगे कि जो भी कोप करना हो, जिलाधिकारीपर करे। और मैं भी पूछँगी कि जब मैं तुम्हें माता कहती हूँ, तो तुम्हारा कोप भी तो प्रेमभरा ही होगा ना !
इतना कहकर मैं जितंमया ( मैं जीत गई ) वाली मनस्थितीमें गर्व कर ही रही थी कि उन्हीं देवदासियोंमेंसे एकने भारी स्वरमें प्रश्न पूछा - हमारी ये परंपरा बंद हुई तो हम क्या खायेंगी ?
यही सबसे कठिन और गरीबीकी भयावहता दिखानेवाला प्रश्न था। इसका उत्तर भी तत्क्षण देना आवश्यक था अन्यथा अबतककी सारी जीत, सारे कानून, और सारे शास्त्रार्थ फेल होनेवाले थे। लेकिन उस दिन शायद देवीने भी ठान लिया था कि अब इस प्रथाको बंद कराना है। मुझे उपाय सूझा -- इसी जत गांवमें जिला परिषदकी ओरसे एक मुर्गी ब्रीडींग सेंटर चलाया जाता था जहाँ आठ सप्ताहतक मादा चूजे पालकर, उनका इम्युनाइझेशन इत्यादि कराकर किसानोंको बेचे जाते थे, और किसानोंके लिये इन मुर्गियोंके अंडे अच्छी कमाईका स्रोत हो जाते थे। उस सेंटरका इन्चार्ज वेटेरनरी डॉक्टर, श्री येलगी एक कार्यतत्पर अधिकारी था यह मैं जानती थी। मैंने ऐलान किया कि जो देवदासी आजके बाद अपनी मेहनतका कमाया खाना चाहती हो, उसके लिये जिला परिषदके ब्रीडींग सेंटरमें प्रशिक्षणकी व्यवस्था की जायगी। इस कालमें भत्ता मिलेगा। तीन महीनेके बाद जब वे स्वयं मुर्गी पालने और अंडोंका व्यवसाय करनेमें सक्षम होंगी तो व्यवसाय प्रारंभ करनेहेतु सहायता सब्सिडी मिलेगी। जो भी इच्छुक है, अभी जाकर मुर्गी सेंटर देखकर आये। दोपहरको यहाँ प्रशिक्षणके फॉर्म इत्यादि भरवाये जायेंगे।
यह सब कुछ अचानक और बिना किसी योजनाके हो रहा था। वास्तवमें मैंने दोपहरको जो मीटींग रखी थी उसमें देवदासियोंसे उनकी समस्याएँ और संभावित उत्तर जानना, फिर सरकारी तरीकेसे तहसिलदार या बीडीओसे योजना मंगवाना, फिर समयके प्रवाहमें कभी तीन –चार माहमें उनका कार्यान्वयन करवाना इत्यादि ढाँचा मेरें मनमें था। लेकिन यहाँ सब कुछ एक क्षणके अन्तरालमें घट जानेको उतावला हो रहा था। जिला परिषदमें अच्छे प्रशासकके रूपमें बनी पूर्वसंचित ख्याति ही मेरे काम रही थी। क्योंकि सेंटरका डॉक्टर, बीडीओ वगैरा सब मेरी खातिर इस कामको अच्छी प्रकार निभानेवाले थे। जिला परिषदमें मेरी जगह नये मुख्य अधिकारी श्री रमणी आये थे और पिछले दस दिनोंमें ही मेरे बच्चोंके अच्छे दोस्त बन गये थे, उनका होना भी काम आनेवाला था क्योंकि कागजोंपर योजना मंजूरी उन्हींकी स्वाक्षरीसे होने वाली थी। सांगली वापस जानेपर उन्हें भी इसके लिये राजी कराना पडेगा। लेकिन अभी तो इस क्षणका निर्वाह करना अत्यावश्यक था।
दोपहरकी मीटींगसे पहले ही सत्ताइस देवदासी महिलाओंने प्रशिक्षणके लिये फॉर्म भरे। बच्चियाँ छोडने आई अभिभावक महिलाओंमेंसे भी किसी किसीने फॉर्म भरे। जिला परिषदकी ओरसे चलाये जानेवाले IRDP और TRYSEM कार्यक्रमके लिये प्रपोजल बनानेवाले बीडीओने पूछा मॅडम, ये महिलाएँ तो देवदासी नही हैं ? मैंने कहा, प्रपोजलमें लिखो कि आगे चलकर इन प्रशिक्षित देवदासियोंको समाजके मुख्य प्रवाहमें लानेहेतु प्रशिक्षण कालमें ही हम तीस प्रतिशत गरीब महिलाओंको भी लेंगे जो देवदासी ना भी हों लेकिन IRDP में लाभ पानेकी हकदार हैं।
दोपहरकी सभामें सेंटरके डॉक्टर येलगीने बिना किसी पूर्वतैयारीके एक अच्छासा भाषण दिया कि मुर्गियोंकी देखभाल कैसे की जाती है, नुकसानसे कैसे बचा जाता है, और इस कामको सीखना उन देवदासियोंके लिये कोई मुश्किल नही पडनेवाला, इत्यादि। उस शाम मेरे साथ बैठकर उसने तीन महिनेके प्रशिक्षणका सिलेबस और हर दिन क्या क्या पढाया जाये उसका चार्ट बना डाला।
एक सप्ताहके अंदर चार पांच आरंभिक काम पूरे हो गये। ट्रेनिंग सेंटरका उद्घाटन जिला परिषद अध्यक्ष, मैं और रमणीने मिलकर किया। TRYSEM य़ोजनाकी मंजुरी लेकर बीडीओने तीन महीनेके स्टायपेंडकी रकम भी मुर्गीपालन सेंटरको दे डाली। तहसिलदारने बस परिवहन कार्यालयसे सबके लिये बसके पासकी व्यवस्था कराई। कई देवदासी महिलाएँ अपने बच्चे भी साथ लानेवाली थीं। सो उनके लिये क्रेश चलानेका काम मैंने सांगलीकी एक स्वयंसेवी संस्था भगिनी निवेदिता प्रतिष्ठानको सौपा। उनके क्रेशघरमें खिलौने, आया, इत्यादीकी व्यवस्था भी तहसिलदारने करवाई।
पहले सप्ताहके बाद ही डॉक्टर येलगी, बीडीओ और तहसिलदार तीनोंके अलग अलग रिपोर्ट आये कि सब कुछ सुचारू रूपसे चल पडा है। मैं और रमणी इस प्रश्नको लेकर बैठे कि तीन महीने बादके लिये हमें क्या तैयारी करनी है।
उन तीन महीनोंमें और अगले चार वर्षोंमें कई कठिनाइयाँ, संघर्षके प्रसंग, आदिके बावजूद सांगली जिलेका यह देवदासी आर्थिक पुनर्वास प्रकल्प कई प्रकारोंसे मेरे कामका और मेरी समझ बढानेका हिस्सा बना रहा। इस दौरान सरकारी विभागोंका समन्वय–अभाव और फिर भी उसी तंत्रके इक्के दुक्के कार्यसमर्पित अधिकारियोंका आश्वासक अस्तित्व, दोनोंको देख लिया। पूरे प्रकल्पमें लगभग तीन सौ देवदासियाँ प्रत्यक्षतः लाभान्वित हुई। उन चार वर्षो का ब्यौरा फिर कभी।
मेरे लिये सर्वाधिक संतोषकी बात यह रही कि जत ग्रामके यल्लम्मा देवीके मंदिरमें देवदासी बच्चियोंको छोडनेकी प्रथा सदाके लिये समाप्त हो गई। मेरे पश्चात् वहाँ आनेवाले जिलाधिकारियोंने भी इस बातको सुनिश्चित किया कि प्रथा फिरसे चल पडे। यह सारा सुधार कालचक्रके उस एक क्षणमें समाया हुआ था जिस क्षण किसी देवदासीने मुझसे पूछा था हम क्या खायेंगी और मैंने उस क्षणका उत्तरदायित्व पूरे समर्पणसे निभाया था।
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